मंगलवार, 22 सितंबर 2015

अप्रवासी की चाय....

विदेश में किसी भारतीय को कुछ चीज़ों में झिझक होती है, ख़ास तौर पर शाकाहारी और सिगरेट शराब से दूर रहने वाले व्यक्ति को। बच्चन जी ने कहा था कि व्यसन या नशे के दोस्त बड़े पक्के होते हैं। सच ही है, पीने पिलाने वाले लोगों का बहुत जल्दी बड़ा ही गजब सा फ़्रेंड सर्कल बन जाता है। हम जैसे लोग जो सिर्फ़ काम से काम रखते हैं, मजबूरी या फिर मजदूरी की श्रेणी में गिने जाते हैं। आज कल मेरे मैनेजर मुझे प्रमोट करते हैं कि मैं ऐसी मीटिंग्स में जाऊँ और लोगों से बात करके अपना दायरा बढ़ाऊँ। सिर्फ़ काम करने से तरक़्क़ी नहीं होगी का मंत्र देते हैं। अब भाई हम तो उस सभा, मीटिंग या कार्यक्रम में कभी नहीं जाते जहाँ के चीफ़ गेस्ट हम नहीं हैं। मैं ऑफ़िस में इवेंट्स के नाम पर होने वाली लाखों करोड़ों की बर्बादी के हमेशा ख़िलाफ़ रहा हूँ। भारत जैसे देश में जहाँ आज भी उन्नीस करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं वहाँ ऐसे पैसे बरबाद करना मुझे तर्क संगत कभी न लगा।

असल जीवन में, मैं फ़ाइव स्टार की बर्बादी की जगह चाय की एक प्याली को ज़्यादा महत्त्व दूँगा। अगर उसमे प्यार है, अपनापन है तो फिर वह अमृत है। उसकी तुलना में पाँच सितारा की पार्टी छलावा है। मैं कई साल पहले कई बार रायगढ़ के एक गाँव में यूँ ही चला जाता था और बच्चों को स्कूल में पढ़ते पढ़ाते देखता। एक मास्टर साब मुझे चाय पिलाते और मैं उनको हिंदी पढ़ाता। मराठी माध्यम होने के कारण उनका हिंदी ज्ञान कमज़ोर था और वह मुझसे सीखने में ज़रा भी नहीं कतराते थे। मैं भी पूरा सम्मान देकर उन्हें अपना समय देता था। धीरे धीरे समय बदला, लोग बदले और हम भी बदल गए। बीते दस सालों में हमने चाय की वजह से कई दोस्त बनाए हैं। पुराने ब्लॉगरों को मेरी चाय प्रेम की कविताएँ शायद अभी भी याद होंगी। बहरहाल अब हम चाय की प्याली ले आए हैं और मनीषा के साथ बालकनी में चाय का मजा ले रहे हैं।


जो कोई भी आना चाहे स्वागत है, मेरे यहाँ हर कोई चीफ़ गेस्ट ही है।

कोई टिप्पणी नहीं: