सोमवार, 21 सितंबर 2015

बैठे बैठे... कुछ यूँ ही :)

ट्रेनों में सीट मिल जाना अपने आप में बड़ा सुखद अनुभव होता है, लोग ऑफ़िस में अक्सर बात करते मिलते हैं, आज तो खिड़की मिल गयी, आज का दिन अच्छा गुज़रेगा। वैसे बम्बई की लोकल से यह ट्रान्स-हडसन पाथ ट्रेन का अनुभव काफ़ी अच्छा है। लेकिन उस मनोरंजन की तुलना इससे नहीं हो सकती। मुंबई लोकल में भजन और कीर्तन करते लोग सुबह की थकान भरी लोकल की यात्रा को एक यादगार अनुभव में बदल देती है। पश्चिम और मध्य उपनगरीय रेल सेवा में यह यात्री भगवान के भजन गाते, शंख और घंटे घड़ियाल बजाते अपना दिन शुरू करते हैं। 

भगवान को याद करना और अपने दिन की सबसे थकान भरे सफ़र को यूँ धर्म से जोड़ लेना वाक़ई एक महान बात है। जिस किसी ने भी इस परम्परा की शुरुआत की वह शायद आज जीवित न हो लेकिन मेरा साधुवाद उन्हें। वैसे किसी भी भाषा में हों लेकिन हमारे लोकगीत मन को मोहने वाले होते हैं, पारम्परिक लोकगीत सदा कोई संदेश लिए होते हैं और यह मानवीय संस्कारो की एक चलती गिरती पाठशाला सरीखी होते हैं। आज ट्रेन में बैठे, न्यूयॉर्क की भूमिगत रेल प्रणाली में सूट बूट में कई लोगों को देख रहा हूँ। इनकी अपनी सभ्यता है, संस्कार हैं। रेल भी इतनी साफ़ है और कोई धक्का नहीं। सामने एक व्यक्ति ने फ़र्श पर कॉफ़ी का कप रखा है लेकिन वह ज़रा भी नहीं छलका और वैसे का वैसा ही रहा। लोग तमीज़ से उतर रहे हैं चढ़ रहे हैं। कोई हल्ला नहीं, मगर इस शांति में वो बात नहीं। बहरहाल चलिए बातों बातों में मेरा स्टेशन आ गया और ऐसा लगा मानो विरार से चर्चगेट घूम आया हूँ। बहरहाल मेरा स्टेशन आ गया है और मैं यथार्थ में वापस आ गया हूँ। 

चलिए शुभ-दिन आप सभी को।