शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

फोन बिन सब सून...

अगर आपका फोन खराब हो जाए तब क्या हो? आज कल की तकनीक पसंद दुनिया मे फोन बिन सब सून.. फोन है तक इंसान की सांसें हैं, फोन नहीं, नेटवर्क नही तो जिंदगी भी नहीं.... ऐसा ही है न?

कल शाम मेरा गूगल पिक्सेल नए ऑपरेटिंग सिस्टम 8.1 एंड्राइड इंस्टॉल करते समय वीरगति को प्राप्त हो गया.... बिचारा मेरे हाथ मे कब तक झेलता सो निबट लिया... इस वर्चुअल से संसार में बिना फोन कितना सुकून है क्या कहूँ... सुबह सुबह पाँच बजे ऑफ-शोर की कॉल थी मग़र फोन ही नहीं तो क्या कॉल? आराम से सोया.. रात में भी जल्दी नींद आ गयी क्योंकि न फेसबुक और न ट्विटर... और न ही मैच की टेंशन और न ही इसकी कि आज सुरजेवाला और सिब्बल ने क्या बकवास की और राहुल गांधी ने क्या नया कॉमेडी किया.... और न ही इस बात से कि मोदी ने चाय वाला बनकर कैसे जेबलूटली!! बवाल है यह फोन.. बिन फोन ज़िन्दगी में कितना सुकून है... 

सुबह ऑफिस के रास्ते में बीवी को कॉल करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, ऊपर से मोबाइल की कैद से खाली हुए हाथों ने कल की बर्फबारी के पहले की ठंड में गर्म कॉफ़ी लेकर चलने का आनंद लिया... मोबाइल न होने से जेब हल्की थी तो कई बार ऐसा आभास ज़रूर हुआ कि किसी ने जेब तो न काट ली!!  आज न चलते हुए रास्ते में किसी को काल करने की जरूरत पड़ी और न ही आफिस में भयंकर व्यस्तता के बीच "क्या कर रहे हो" जैसे सवालों का उत्तर देने की स्थिति आई... और तो और बिना फोन स्क्रोल किये हुए राजगद्दी निपटान की आदत भी तो थी - आज तो हम दस मिनट में एकदम तैयार हो गए... आज कितने दिनों बाद सुबह की चाय साथ पी... शाम को भी कोई कॉल कर ही नहीं पाया तो मैं कहीं फंसा ही नहीं सो शाम की चाय भी साथ पी... इस फोन के साथ न होने से पत्नीजी के चेहरे पर एक अजीब सी खुशी थी..  अरे इस फोन ने न जाने कितने लाखों करोड़ों पल हमसे छीन डाले इसका आभास सिर्फ एक दिन लैंडलाइन युग में जाने पर ही हो गया... 

बहरहाल शाम होते होते फोन ठीक किया गया... नया ऑपरेटिंग सिस्टम भी इंस्टॉल हो गया और हमारा गूगल पिक्सेल फिर से तैयार है लेकिन यह फोन ठीक होते ही कुछ तो फिर से खराब सा हो गया... 

----  न्यूयॉर्कर बिहारी की डायरी: आठ दिसंबर  

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

अनजान रास्तों पर पूरे कॉन्फिडेंस के साथ:-2

आज तक हम तकनीक पर बहुत हद तक निर्भर होते जा रहे हैं और असल में आज की ज़रूरत भी है, मैं पिछले पोस्ट की ही शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज जीपीएस और सैटेलाइट नेविगेशन के बारे में बताना चाहूंगा। सेटेलाइट नेविगेशन या उपग्रह नौ-वहन प्रणाली (SATNAV) एक ऐसा सिस्टम है जो उपग्रहों के माध्यम से पृथ्वी पर स्थित किसी भी बिंदु के निर्देशांक को निर्धारित कर सके। इसमें एक इलेक्ट्रॉनिक रिसीवर उपग्रहों के माध्यम से अक्षांश, देशांतर और ऊंचाई की गणना कर सकता है। आज कल तो यह सिस्टम स्थानीय समय की भी गणना कर सकने में सक्षम हैं। 

अप्रैल 2013 तक इस क्षेत्र में अमेरिका और रूस अकेले ही बादशाह थे और NAVSTAR GPS (अमेरिका) और GLONASS (रूस) के उपग्रह और तंत्र विश्व भर की ज़रूरत पूरी करते थे। चीन और भारत ने अपने अपने तंत्र बनाने की दिशा में बहुत तेज़ी से कदम बढ़ाये हैं और अब चीन का BDS (BeiDou Navigation Satellite System) और भारत का गगन (GPS Aided GEO Augmented Navigation) दोनों बहुत जल्दी इस मामले में अमेरिकी और रूसी बादशाहत को चुनौती देते हुए नज़र आएंगे। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि हमारा ब्रम्होस शुद्ध देसी इसी गगन नेविगेशन प्रणाली पर चलेगा और उसकी विश्व के किसी अन्य देश की प्रणाली पर कोई निर्भरता नहीं होगी। जल्दी ही हमारा खुद का नेविगेशन तंत्र NAVIC (Navigation with Indian Constellation) तैयार हो जायेगा और एयरपोर्ट अथॉरिटी (हमारा घरेलु नागर विमानन), वायु सेना, थल सेना और नौसेना पूरी तरह से देसी नेविगेशन प्रणाली पर चलेगी।

चलिए थोड़ी जानकारी लेते हैं इन सभी प्रणालियों की:

1. GPS: इसे आप अमेरिकी प्रणाली कह सकते हैं और इस प्रणाली में ३२ मध्य भू कक्षा (अंतरमाध्यमिक वृत्ताकार कक्षा) में पृथ्वी के चक्कर लगाते हुए उपग्रहों पर आधारित प्रणाली कह सकते हैं। यह सभी उपग्रह छः अलग अलग ऑर्बिटल प्लेन में हैं और समय समय पर अमेरिका ने उन्हें अपग्रेड किया है। यह आज भी विश्व का सबसे ज्यादा प्रयोग में होने वाली प्रणाली है। 

जीपीएस उपग्रह 

2. GLONASS: यह सोवियत संघ द्वारा बनाया और अब रूस द्वारा संचालित प्रणाली है जो पहले सिर्फ रूसी सेना के प्रयोग में आता था और अब यह सिविलियन के लिए भी उपयोग में लाया जा सकता है। इसमें २४ GLONASS उपग्रहों के जरिये पूरी दुनिया में नेविगेशन सुविधा दी जा सकती है।

रूस के गो-नेट और ग्लोनास 
3. BDS: यह चीन द्वारा विकसित किया जा रहा नेविगेशन सिस्टम है जिसका एक चरण (१० उपग्रहों का) अब पूरा हो चुका है और यह जल्दी ही पूरी दुनिया का कवरेज दे पायेगा। 

इसके अलावा चीन यूरोपियन यूनियन द्वारा विकसित किये जा रहे गैलीलियो में भी सक्रिय रूप से लगा हुआ है। 

चीन का बीडीएस 


4. GAGAN और IRNSS: यह भारत में इसरो, एयरपोर्ट अथॉरिटी के द्वारा मिल जुल कर बनाया गया सिस्टम है जिसके जरिये अब भारत में तीन मीटर तक की दक्षता पाई जा सकती है। इसके जरिये विमानों के परिचालन में बहुत सहायता होगी। भारत ने नेविगेशन के लिए प्रणाली शुरू कर दी है और इस श्रृंखला में सात में से पहला उपग्रह छोड़ा जा चुका है। 

गगन 
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मुझसे अक्सर लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि गाड़ी चलाते समय या नेविगेशन के लिए डेडिकेटेड डिवाइस लें या फिर मोबाइल से काम चलाएं? मित्रों आइये आपको इसका अंतर समझाने का प्रयास करता हूँ। 

डेडिकेटेड डिवाइस जैसे कि गार्मिन प्री-लोडेड नक़्शे के साथ कोई डेढ़ सौ डॉलर का मिलता है और आप उसे अपने डैशबोर्ड पर माउंट करके बेसिक नेविगेशन की सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। अब आपका कौन सा डिवाइस किस प्रकार के उपग्रह से डेटा पॉइंट ले सकता है वह उसके मैनुअल में समझना होगा। ज्यादातर डिवाइस केवल अमेरिकी सेटनैव या जीपीएस को ही समझते हैं और उनमे कम्पास या खुद से दिशा का आंकलन करने की क्षमता नहीं होती। सो अगर आप किसी फ्लाई-ओवर के नीचे हैं और आपके डिवाइस को सही डेटा नहीं मिला तो वह आपको जानकारी नहीं दे पायेगा। कुछ ही डिवाइस ऐसे हैं जो दिशा समझ सकते हैं और उसके हिसाब से आपके नक़्शे को ठीक ओरिएंटेशन में रख सकते हैं। 

अब बात करते हैं मोबाइल फोन की तो यहाँ बहुत विकल्प हैं, लगभग सभी स्मार्ट फोन में अमेरिकी जीपीएस को समझ सकने की क्षमता है और अब आई-फोन-७ में रूसी ग्लोनास का रिसीवर आएगा लेकिन अभी आई-फोन सहित लगभग सभी कम्पनियाँ सैमसंग से काफी पीछे हैं। सैमसंग के नए नोट-७, एज-६, एज-७ सभी हैंडसेट जीपीएस के अलावा ग्लोनास, बीडीएस, गैलीलियो इन सभी से डाटा कलेक्ट कर पाएंगे सो यह फोन किसी भी डेडिकेटेड डिवाइस से बेहतर काम करेंगे। इन सभी फोन में मेग्नेटिक सेंसर और कंपास है और इनमे दिशा को पहचान सकने की क्षमता है। रही बात नक़्शे की तो आप प्ले-स्टोर से बहुत से मुफ्त या बड़ी ही मामूली कीमत कर मैप सॉफ्टवेयर इनस्टॉल कर सकते हैं। 

मेरे अनुभव से मोबाइल डिवाइस किसी भी अन्य जीपीएस डिवाइस से बेहतर हैं और वह सही मायने में स्मार्ट हैं। जीपीएस डिवाइस या आपके कार का नेविगेशन सिस्टम सिर्फ दिखाने के लिए ठीक है क्योंकि वह बौड़म है और उसे आस पास हो रही घटनाओं की जानकारी नहीं। इसलिए सबसे बेहतरीन है गूगल का मैप जो रियल टाइम ट्रैफिक की जानकारी देता है और आप इसको इस्तेमाल करते समय अपने रुट की पूरी जानकारी रख सकते हैं, रास्ते में लिए गए फोटो गूगल फोटोज अपने आप ही मैप पर टैग कर देता है सो आप समझ सकते हैं की आपने कौन सा फोटो कब और कहाँ लिया है। एप्पल के मैप ने मुझे पिछले कुछ दिनों से थोड़ा बहुत इम्प्रेस किया है लेकिन अभी भी वह गूगल के सामने बच्चा ही है। 

यह देखिये आज की ड्राइव के बाद का चित्र 
थोड़े से जजमेंट से आप अनजान रास्तों पर बड़ी ही आसानी से यात्रा कर सकेंगे और पार्किंग, पर्यटन स्थल, पेट्रोल पम्प, होटल, ट्रैफिक की दुर्घटना, ट्रैफिक जाम और लेन गाइडेंस जैसे कई सुविधाओं का लाभ उठा सकेंगे। सो इसलिए सही बात को समझते हुए अपनी जरुरत के हिसाब से सही विकल्प का चुनाव कीजिये। 

इस पोस्ट में मैंने प्रयास किया कि आम बोलचाल की भाषा में इसे समझा जा सके, यदि किसी को कोई शंका हो या कोई और प्रश्न हो तो बेझिझक संपर्क करें। 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

कैमडन एडवेंचर एक्वेरियम

बच्चे बड़े हो जाते हैं लेकिन हमारी नज़र में तो वह बच्चे ही रहते हैं न... कल हम पेंसिल्वेनिया के बॉर्डर पर बने कैमडन एडवेंचर एक्वेरियम गए तब वहाँ आदि की कूद फाँद ने हमारा खूब मनोरंजन किया... ख़ास तौर पर शार्क टनल में जो एक ऐसी जगह जहाँ पानी के बीचों बीच सीशे की सुरंग में आप हर ओर से शार्क को देख सकते हैं।


आदि ने पहले तो खूब शार्क देखे फिर बोला पापा चलो ऊपर चलो, ऊपर से उसका मतलब था कि अब उसे शार्क को ऊपर से देखना था.. मैं तो पहले ही आदि को लेकर डरा हुआ रहता हूँ सो मैंने मना कर दिया लेकिन फिर आदि की जिद्द पर ऊपर शार्क ब्रिज पर आया.. यह एक रस्सी का पुल जो शार्क के पिंजड़े के ऊपर एल शेप में बनाया हुआ है और आप उस झूलते हुए रस्सी के पुल पर इस पार से उस पार जा सकते हैं... आदि बोला लेटस गो पापा.. आदि सबसे आगे उसके पीछे मनीषा और सबसे पीछे मैं और आराम से आदि अपने पैर टिकाते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ता गया और पूरा ट्रिप पार किया.. जब हमारा ट्रिप पार हुआ तब अटेंटेण्ड ने कहा कि आदि आज के दिन का इस ब्रिज पर सबसे छोटा बच्चा था लेकिन बहुत अच्छे से पार किया सो "वैरी गुड एंड ब्रेव बॉय"। ट्रिप पूरा होने के बाद यह फोटो लिया गया....





हमारा रास्ता और अपने सिंहासन पर विराजमान आदि महाराज 



दरियाई घोड़े (सी-हॉर्स)
(जेली-फिश)
गौरैये 
न्यूजर्सी और पेंसिल्वेनिया के बीच बेंजामिन फ्रैंकलिन सस्पेंसन ब्रिज 

सोमवार, 15 अगस्त 2016

न्यूयॉर्कर बिहारी का पंद्रह अगस्त..


अगस्त 15 2016, 9:18pm

आज शाम घर जाते समय एम्पायर स्टेट बिल्डिंग को हिंदुस्तानी रंग में रंगा देखकर बड़ा अच्छा लगा और अगले रविवार को इंडो-अमेरिकन फेडरेशन के द्वारा आयोजित परेड न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वायर पार्क से निकाली जाएगी। इस बार बाबा रामदेव मुख्य अतिथि हैं, और शायद अभिषेक बच्चन भी आने वाला है लेकिन उनके साथ कई और अतिथि, बॉलीवुड सबका जमावड़ा होगा। यहाँ हर देश के नागरिक स्वतन्त्र हैं और अपने त्यौहार और अपने राष्ट्रीय दिवस मनाने के लिए। कल जब जर्सी सिटी में परेड निकाली गयी तब उसमें जय श्री राम, हरे कृष्णा और जय हिंद के उद्घोषों का समावेश था। यहाँ धर्म और राष्ट्र को एक ही तराजू में रख दिए जाने से कोई दिक्कत नहीं होगी क्योंकि असल में सत्य सनातन संस्कृति ही तो भारत का प्राण मन्त्र है। बहरहाल भारत में शायद इस पर बवाल हो जाता, अपने यहाँ वोट बैंक की राजनीति नेता से लेकर जनता तक इस कदर हावी है कि क्या कहा जाए।

वैसे आज यहाँ ऑफिस में छुट्टी नहीं है लेकिन भारत में छुट्टी के बावजूद भी ऑफिस आने वाले आईटी मजदूरों को मेरा प्रणाम। आईटी के यह फौजी जो ऑफ-शोरिंग के नाम पर पूरी दुनिया को संभालते हैं वह भी बिना घड़ी देखे और बिना कोई तकलीफ के। दिवाली हो या दशहरा और या फिर पंद्रह अगस्त या फिर छब्बीस जनवरी। हर दिन, पूरी शिद्दत के साथ डटे रहते हैं और यही बैक ऑफिस सपोर्ट हमारी सर्विस इंडस्ट्री की रीढ़ है। यह फ़ौज की तरह है जो बड़े बैंको, कंपनियों को रात दिन सर्वर, डेटाबेस और विण्डोज़ टेक्नीकल सपोर्ट देते हैं और ऑन शोर के मैनेजरों के लिए यह किसी मजदूर से ज्यादा नहीं होते या यूँ कहिये तो उतनी इज़्ज़त नहीं पाते जितने के वह हक़दार होते हैं।

चलिये मेरी ट्रेन घर पहुंची... आप लोगों के लिए यह फोटो....



बुधवार, 3 अगस्त 2016

अनजान रास्तों पर पूरे कॉन्फिडेंस के साथ.. मोबाइल नेविगेशन ज़िंदाबाद


भारत में ड्राइव करना और अमेरिका में ड्राइव करने में कई बुनियादी अंतर है... भारत में बाएं चलने की आदत होने के कारण शुरूआती समय में दिक्कत हुई लेकिन फिर धीरे धीरे अभ्यस्त होने के बाद ठीक हो गया। वैसे भी आजकल गूगल मैप लेन गाइडेंस, रियल टाइम अपडेट के साथ ट्रैफिक की स्थिति, ट्रैफिक जाम होने पर वैकल्पिक रास्ते की भी जानकारी दे देता है और बहुत उपयोगी होता है। मैंने पहली बार मोबाइल मैप 2006 में इस्तेमाल किया था और नेविगेशन का उपयोग करना 2007 में शुरू किया था उस समय नोकिया मैप्स और गूगल मैप्स अपने आरंभिक दौर में थे, और गूगल के लैटिट्यूड ने भी अपनी लोकेशन को साझा करने और नेविगेट करने में बहुत मदद की थी। जब हम भारत भ्रमण पर थे तब इसी लोकेशन शेयरिंग के कारण शिवम भैया की मैनपुरी की उन घनघोर गलियों में भी आसानी से पहुँच गए थे। यहाँ अमेरिका में तो गाड़ी चलाने के लिए बड़ा सोच विचार करना पड़ता है, गाड़ी को कब, कहाँ और कैसे, किस लेन में रखनी है और कितनी स्पीड पर रखनी है इन सभी के लिए नेविगेशन परम आवश्यक हो जाता है।

मुझे मोबाइल नेविगेशन के लिए तीन मुख्य एप्पलीकेशन पसंद आते हैं: गूगल मैप, नोकिया या हियर मैप(ऑफ लाइन नेविगेशन की सुविधा के साथ) और तीसरा वेज़(Waze). वेज़ से मेरी दोस्ती हाल फिलहाल ही हुई है और यह मुझे बड़ा पसंद आया है। इसमें सोशल नेटवर्किंग की ही तरह गड्ढे, सड़क के जाम, कोई ट्रैफिक हादसा सभी जानकारी साझा कर सकते हैं और अपने रास्ते पर चलने वाले लोगों की मदद ले सकते हैं और उनकी मदद कर सकते हैं। नोकिया हेअर मैप्स तो विमान में बैठे हुए भी लोकेशन दिखा रहा था, यह देखिये उदाहरण के लिए:
वेज़ की स्थिति तो एकदम मजेदार होती है, जैसे कि अभी इस समय रात के साढ़े ग्यारह बजे भी मेरे घर के आसपास के ट्रैफिक की स्थिति देखिये:
न्यूयॉर्क जाने के लिए लिंकन टनल में ट्रैफिक जाम को बताते वेज़ के सोशल नेटवर्किंग  

इनके अलावा भारत में मैंने sygic का बहुत उपयोग किया है, त्रिविमीय आकृतियों से सुसज्जित यह बड़ा ही अच्छा एप्पलीकेशन है। इसकी सिर्फ एक दिक्कत है वह बैटरी, सो कर में अगर चार्जर है तो आप बड़े ही मजे में घूम सकते हैं। यह स्पीड अलर्ट भी देता है जो बहुत उपयोगी है।
स्पीड अलर्ट के साथ 
1612 किमी चलने के बाद भी पूरे मजे से.....



इसके अलावा आजकल गाड़ी में लगे लगाए नेविगेशन के भी अच्छे कण्ट्रोल हैं लेकिन वह मुझे बड़ा ही सीमित और बेवकूफ किस्म का लगता हैं। उसके ऊपर भी गाड़ी के निर्माताओं की बेवकूफी से भरी नीति है जो मैप के नए अपडेट के लिए आपको दौड़ाते रहते हैं। जेब में पड़ा हुआ आपका मोबाइल और पर्सनल नेविगेशन इस झिकझिक की तुलना में काफी अच्छा है। सो बस इनस्टॉल कीजिये और मजे से निकल पढ़िए, अनजान से रास्तों पर पूरे कॉन्फिडेंस के साथ :) :)

चलिए लगे हाथो इनको डाउनलोड करने की लिंक दिए देता हूँ:

एंड्राइड:
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.sygic.aura
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.waze
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.here.app.maps
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.google.android.apps.maps

(इस पोस्ट के सभी चित्र मेरे मोबाइल से लिए हुए हैं और सभी मेरे किसी न किसी यात्रा के अनुभव हैं)

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

हिन्दू धर्म, आध्यात्म और हम

मेरे न्यूयॉर्क ऑफिस में एक व्यक्ति उसी गाँव का है जहाँ से मदर टेरेसा हैं, वह अति मधुर स्वभाव का और भारतीय संस्कृति के प्रति बहुत आदर स्वभाव रखने वाला व्यक्ति ज़ेवियर मुझसे बहुत सी बातें करता है। लगभग साठ वर्ष की आयु होने के बाद इन सभी की जानकारी लेना और संस्कृतियों के बीच के अंतर को समझने का उसका प्रयास मुझे बहुत अच्छा लगा। कल ज़ेवियर ने पूछा, आखिर इतने धर्मो के बावजूद भारत में कभी कोई धर्मयुद्ध क्यों नहीं हुआ, अब छोटी मोटी घटनाओं को यदि नज़रअंदाज़ किया जाए और यदि हम एक आम भारतीय के मत को जाने तो हम समझ सकते हैं कि आम तौर पर भारतीय सहिष्णु, देश के प्रति थोड़े से लापरवाह किन्तु सुषुप्त अवस्था में बहुत ऊर्जा समेटे हुए हैं। भारतीय हनुमान के समान हैं जो अपनी शक्ति का स्मरण स्वयं नहीं कर पाते परंतु जब उन्हें कोई प्रेरित करता है (अच्छी या बुरी ओर) तो वह क्रांति को तत्पर हो उठते हैं। मैं स्वयं मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटीज़ और मदर टेरेसा के काम काजी तरीकों का आलोचक हूँ और मेरे विचार से इस संगठन की गतिविधियों पर निगरानी होनी चाहिए, ख़ास तौर पर धर्मान्तरण पर। विश्व समुदाय और वेटिकन सिटी दस-चालीस की खिड़की में भारत को एक बड़े टारगेट के रूप में लेता है और भारत की वोट बैंक की राजनीति उसमे उसकी मदद करती है। कभी एनजीओ की आड़ में तो कभी चमत्कारों की आड़ में भोले भाले भारतीयों को मूर्ख बनाते हुए यह अजीब सी हरकतें करके भी पूर्व की भारतीय सरकारों के समर्थन से आज तक सक्रिय हैं। 

उसका एक और कारण यह है कि बहुसंख्यक हिन्दू असंगठित है और वह बहुत सी बातों से अनजान हैं। भारत में इन संगठनों के इतना सक्रिय होने की एक वजह यह भी है कि भारत हमेशा एक बहु-धार्मिक और सबको साथ लेकर चलने वाला सहिष्णु समाज रहा है। विश्व में जब सभी पंथो का यह मानना है कि उनके शास्त्र, बाइबल और क़ुरान इत्यादि ही अकेले और अंतिम सत्य का खज़ाना हैं और जो उनकी इस अनंत(?) सत्यता को नहीं स्वीकार करते उन्हें 'पगन' या 'काफिर' कहते हैं। उनके इस विचार से इतर हिंदू धर्म अन्य धर्मों को एक अलग पंथ की तरह देखता है और उनकी मान्यताओं में कोई अतिक्रमण नहीं करता। वह उनके साथ भी अपनी मौलिकता को बनाये हुए, वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ता रहता है। हिन्दू धर्म का दर्शन, अन्य धर्मों से थोडा अलग है क्योंकि यह मौलिक तौर पर आध्यात्म से जुड़ा हुआ और मानवीय मूल्यों और आदर्शों पर आधारित है। कर्मयोग सिखाती हुई गीता, मानवीय आदर्शों की रामायण, सांख्यिकी सिखाता हुआ सांख्यशास्त्र। गौर करने वाली बात यह भी है की भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है जो अद्वैत वेदान्त से सर्वथा विपरीत मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पञ्चमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन।योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिङ्गला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं। 

हिन्दू धर्म के मूल से परिचय के लिए सांख्यदर्शन के २५ तत्वआत्मा को समझना होगा, जो किसी भी मानव के लिए कुछ यूँ हैं: यह भागवत पुराण के श्लोक का ही अभिप्राय है:  

पंच महाभूत: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश 
पांच: तन्मात्र: गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द 
चार अंतःकरण: मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त 
पांच ज्ञानेंद्र: जीभ, नासिका, नेत्र, त्वचा और कान 
पांच कर्मेन्द्रियाँ : पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक

विज्ञान के तर्क और आज का मेडिकल साइंस सांख्य के इन सिद्धान्तों की ही बात को दोहराता दीखता है। मूल रूप से हिन्दू धर्म का विश्वास तर्क संगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आध्यात्म से जुड़ा हुआ है इसमें किसी पर आक्रमण कर जैसा कुछ नहीं है। इतिहास से अधिक ऐतिहासिक (दस हज़ार वर्ष से अधिक) हिंदू धर्म के वेद इस बात को स्पष्ट रूप सेकहते है कि: "एकम सत, विप्रबहुधवदंति"- सत्य एक है लेकिन विद्वानों द्वारा इसकी व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है। कई सिद्धान्तों के माध्यम से इस बात को समझाया गया है। मित्रों धर्म और आध्यात्म दो अलग अलग चीजें हैं, उसमे भी व्यक्ति के लिए आध्यात्म अधिक महत्त्व रखता है, उसके लिए धर्म दुसरे स्थान पर आता है। विज्ञान के तर्क, आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए कोई विरोधाभास नहीं करते। मित्रों आज जब विश्व समुदाय में कई वर्ग अपने अपने पंथ प्रचारक हर ओर भेजते हैं, वेटिकन सिटी ईसाइयत के प्रचार के लिए दुनिया भर में मिशनरी भेजते रहे हैं और आज भी उनका यह कार्यक्रम जारी है, आपने हिन्दू बहुसंख्यक नेपाल में भूकंप आने पर इन मिशनरीज़ को बाइबल देते हुए देखा है। यह कुतर्क करते पाये जाते हैं कि यीशु की पनाह में उन्हें मुक्ति मिलेगी और उन्हें हिन्दू धर्म को छोड़कर ईसाई हो जाना चाहिए। ठीक ऐसा ही मुस्लिम सूफी संत भी करते आये हैं जो पिछले बारह सौ वर्षों से भारत में हिन्दू धर्म को समाप्त करने और इस्लामीकरण के लिए प्रयासरत हैं। हिन्दू फिर भी सिर्फ अपने मूल आध्यात्मिक धारणा और योग सिद्धांत के कारण जीवित रहा, वह कभी काबुल में मस्ज़िद तोड़ने नहीं गया।

मैं यहाँ इतिहास की विवेचना करने या किसी की श्रेष्ठता सिद्ध करने नहीं, बल्कि विश्व में हो रहे धार्मिक कट्टरवादी उन्माद पर चिंतित हूँ। अपने मूल तत्व से भटकाते हुए कथित धर्म गुरु कभी कभी धर्म की मूल भावना से ही भटक जाते हैं। यहाँ धार्मिक गुरुओं की ज़िम्मेदारी है कि वह धर्म की मूल आध्यात्मिक धारणा पर बने रहे और वसुधैव कुटुम्बकम् की अभिधारणा को प्रचारित कर अतुल्य भारत को विश्वगुरु बनाने में योगदान दें। 

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(आज कल मैं भागवत और सांख्य का विद्यार्थी बनकर कुछ सीखने का प्रयास कर रहा हूँ, कुछ ब्लॉग पोस्ट्स के माध्यम से और भी बातें साफ़ करने का प्रयास करूँगा)

सोमवार, 21 मार्च 2016

बैठे ठाले...

चन्दन है इस देश की माटी तपोभूमि हर गाँव है... हर बाला देवी की प्रतिमा बच्चा बच्चा राम है। न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी के बीच की ट्रांस हडसन पाथ ट्रेन में नेटवर्क नहीं आता, क्योंकि ट्रेन भूमिगत रेल प्रणाली है और हडसन के तल के नीचे एक सुरंग से चलती है। मैं कान में हेडफोन लगाए संघ के गीत सुन रहा हूँ, जो शक्ति इन गीतों में है वह किसी और धिनचाक वाले कानफाडू गीतों में कहाँ?

ट्रेन में इस समय मेरे अलावा कोई भारतीय नहीं दिख रहा, सभी मुख्यतः अमेरिकी या अफ़्रीकी लग रहे हैं लेकिन सभी का मोबाइल में व्यस्त रहना और कॉमन है (मैं भी टीप टीप कर रहा हूँ सो मैं भी अपवाद नहीं)। कुछ बुज़ुर्ग लोग अखबार में व्यस्त हैं, शायद यहाँ की भी बुज़ुर्ग पीढ़ी अभी तक मोबाइल से न्यूज़ पढ़ने के लिए अभ्यस्त नहीं हुई है सो अखबार पढ़ रही है। एक दो महिलायें उपन्यास पढ़ रही हैं, उनमे से एक न जाने क्या पढ़ रही है क्योंकि कभी हंस रही है कभी गंभीर तो कभी ओह ओह कर रही है। पहली बार उसके यूँ आवाज़ निकालने से लोगों को अजीब लगा लेकिन अब सबको कोई फर्क नहीं पड़ रहा। हमारी विशेषता यही है न कि हम हर किसी को अपना लेते हैं। बहरहाल कल की बर्फ के बाद की ठंड ने थोड़ा परेशान तो किया ही है। मोटे मोटे जैकेट और मफलर कसे हुए लोगों को देखकर अजीब सा लगता है, पिछले हफ्ते जब पारा पचीस डिग्री पार गया था तब क्या गजब रंग बिरंगे लोग थे अब फिर से सब काला और ग्रे है। वैसे मौसम है, बदल ही जाएगा।

इस ट्रेन में मेरे सामने बैठे एक महिला ने कॉफ़ी का ग्लास फ्लोर पर रखा है लेकिन ट्रेन के चलने या रुकने से एक भी बूंद न छलका और न ही गिरा। वह कोई उपन्यास पढ़ रही है और बीच बीच में चुस्की लेकर रख दे रही है। इतना स्टेबिलिटी काश मुम्बई लोकल में होती तो मजा ही आ जाता, मुश्किल है लेकिन शायद अपने मेट्रो में भी ऐसा ही होता होगा।

मिडटाउन मैनहटन में 23 स्ट्रीट का मेरा स्टेशन आने को है और कान में बज रहा है, "होइहै सोई जो राम रची राखा, को करी तर्क बढ़ावहि साखा"... बस इसी सन्देश के साथ आज का दिन शुरू किया जाए... नया सप्ताह, सोमवार!!

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

हाउ कम इण्डिया!!

मेरे ऑफिस में मेरी डेस्क के अगल बगल एक चीनी और एक अमेरिकी है, चीन का प्राणी जब मौका मिलता है तक अमेरिका को कोस लेता है और अमेरिका वाला तटस्थ रहकर शांत रहता है। मैं भी तटस्थ ही रहता हूँ क्योंकि ऑफिस में क्या ही बोलना। एक बात पर इन दोनों की सहमति है और वह है फुटबॉल, दोनों का जूनून एक सा ही है। दोनों इंग्लिश प्रिमीयर लीग और अमेरिकी नेशनल फुटबॉल लीग बहुत मजे से देखते हैं और ऑफिस के टीवी पर सीएनबीसी की जगह फुटबॉल लगा लेते हैं।

इनके इस शौक में मैं भी मजे ले लेता हूँ क्योंकि थोड़ा बहुत ही सही फुटबॉल का शौक तो मुझे भी है ही। मेरे पापा फुटबॉल के अपने ज़माने के मशहूर खिलाड़ी थे और मौका न मिलने और कोई भी गाइडेंस न होने के कारण और सत्तर के दशक के उथल पुथल में बिहार में ज्यादा कुछ कर नहीं पाये। मैं आज भी फुटबॉल फॉलो करता हूँ लेकिन जूनून जैसा कुछ नहीं। बहरहाल यह दोनों प्राणी खूब मौज से फुटबॉल का मजा लेते रहे, इनसे गलती तब हो गयी जब इन्होंने कहा कि "एनएफएल इस रिचेस्ट बोर्ड"। मैंने कहा भाइयों एक बार गूगल करके तो देखो, फिर बताओ कौन है। दोनों ने गूगल किया और जवाब आया बीसीसीआई, अब इनकी हैरानी। मुझे पूछे यह बीसीसीआई क्या है, हम बोले भारतीय क्रिकेट बोर्ड। इन्होंने बोला लेकिन क्रिकेट देखने और खेलने वाले देश ही कितने हैं, न अमेरिका क्रिकेट खेलता है न चीन। हम बोले गूगल कर लो न, बेचारे थोड़ा सा घबरा गए जब कहीं यह देख लिए की, भारतीय क्रिकेट टीम सबसे महँगी फ्रेंचाइजी है, आईपीएल दूसरा सबसे बड़ा क्लब स्पोर्ट है और बीसीसीआई सबसे अमीर खेल बोर्ड है। उन दोनों का ही रिस्पांस था, "हाउ कम इण्डिया"... हा हा, मुझे बड़ा मजा आया फ़िलहाल..

बहरहाल इसमें गलती इनकी नहीं थी, उन्होंने भारत के बारे में सोचा ही नहीं होगा कभी, सोचते भी कैसे.... वैसे भारत के बीसीसीआई को इतना अमीर बनाने में हम सभी का योगदान है, इसके इतने पॉपुलर होने से बाकी खेल लगभग बर्बादी की कगार पर हैं, आज खुद ही देखिये....

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

अलविदा अन्ना भैया...

अपना कौन पराया कौन, अपनों ने वनवास दिया श्री राम को सरजू पार और पराया था जो केवट, बन गया जीवन की पतवार। कोई मन में रहकर मन के सौ सौ टुकड़े कर जाए, कोई मन से दूर हो फिर भी यह मन सुख से भर जाए। राजश्री की फ़िल्म इसी लाइफ में का यह गीत, अभी एक ऑनलाइन रेडियो पर सुना। वाकई यह बात सच ही है, कभी कभी अपने खुद के रिश्ते बहुत तकलीफ देते हैं और कोई ऐसा व्यक्ति जो हमारा कोई नहीं लेकिन वह मार्गदर्शक बन जाता है। हिन्दी ब्लॉगिंग से मेरा कुछ ऐसा ही रिश्ता है, यहाँ मुझे पूरा परिवार मिल गया। भैया, भाभी, दीदी, कितने प्यारे छोटे भाई बहन और न जाने कितने ऐसे अनजान लोग जो भले कभी हमसे मिलें न हों लेकिन फिर भी हमारे अपने ही हैं। हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरूआती दिनों वर्ष 2003/2004 और 2005 के समय में जब यूनिकोड टाइपिंग नहीं थी और हम सीखने सिखाने में ही अपना समय बिता रहे थे, तब के साथी आज तक अटूट हैं।

जब मैं अमेरिका आया और मनीषा कन्फ्यूज़ थी कि कैसे सब होगा, मैंने पुरी कॉन्फिडेंस से कहा, अभिषेक है स्तुति है कोई दिक्कत नहीं होगी। और वाकई मेरे इन दोनों भाई, बहन ने बहुत मदद की है। शिवम भैया, प्रशांत, शेखर, सलिल दादा, अर्चना दीदी, रश्मि दीदी, अपने राजा भैया, अजय भैया, उड़न दद्दा, ललित दादा, महफूज़ भाई, प्रवीण भैया से लेकर संतोषजी तक सभी ने मेरा मार्ग दर्शन ही किया है। ऐसे कई और नाम हैं जो अभी स्मृति पटल पर नहीं आ रहे लेकिन हिंदी ब्लॉगिंग के साथियों ने हमेशा मेरा साथ दिया है।

आज अन्नाभाई अविनाशजी के चले जाने से यह परिवार को बहुत गंभीर क्षति हुई है। हिन्दी ब्लॉगिंग का एक बहुत पुराना साथी, शिक्षक, मार्गदर्शक, व्यंग्यकार अंतिम यात्रा पर। यह बात बहुत विचलित कर गयी। आज सुबह सोकर उठते ही शिवम भैया का सन्देश देखा और मन उदास हो गया। मेरी अन्ना भैया से कई बार फोन पर बात हुई, मुलाक़ात हालाँकि एक दो बार ही हुई लेकिन परिचय बना रहा। व्यंग्यकार के साथ ज़िन्दगी ने बहुत बड़ा व्यंग्य किया, लेकिन उनका यूँ ही चले जाना धक्के जैसा है। ईश्वर के पास भी हमारे अन्ना भैया वही चिरपरिचित अंदाज़ में डोरी वाला चश्मा लगाए कोई व्यंग्य ही कह रहे होंगे.....

अलविदा अन्ना भैया...

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

गिलास के आधे भरे या खाली होने का समाजशास्त्र


हम अक्सर पॉजिटिव एटिट्यूड या सकारात्मकता पर कई लोगों को भाषण देते हुए सुनते हैं। खुद मोदी भी कई बार आधे भरे या आधे खाली पर काफी बार बोल चुके हैं। मेरी समझ में इस आधे खाली या आधे भरे हुए का भी अपना एक समाजशास्त्र है। यह खाली वह तबका है जो आज़ादी के लगभग अड़सठ साल बाद भी भूखा है, मूलभूत सुविधाओं से लाचार है। यह भारत का वह वर्ग है जो झुग्गियों में, नालों के किनारे, सड़क और फुटपाथ पर भूखा और नंगा है। इसके लिए शिक्षा, राजनीति, सुधार, बदलाव और बड़ी बड़ी बातें कोई मायने नहीं रखती हैं और इसके लिए सिर्फ सो वक्त की रोटी कैसे हो वह ही सबसे गंभीर चुनौती बन जाता है। अपने हिस्से के इस आधे खाली गिलास को देखकर वह हैरान है। उसे दिख रहा है कि दूसरी तरफ का गिलास लबालब भरा है लेकिन वह तो उसके हिस्से का है ही नहीं। वहीँ दूसरी तरफ के आधे भरे गिलास की तरफ नज़र डालिये तो वह चकाचौंध से भरी हुई पांच सितारा संस्कृति से भरपूर इण्डिया है। यह वीकेंड आने पर खुश होता है, पार्टी करता है, मॉल में सिनेमा देखता है, मोबाइल तकनीक का भरपूर उपयोग करता है, उपग्रह, चाँद और मंगल की बातें करता है। यह वैश्विक रूप में भारत का ब्रांड इण्डिया बनाने के लिए एक प्रचार सामग्री की तरह दिखाया जाता है। यहाँ मैं किसी वामपंथी की तरह फालतू की संवेदना नहीं परोसना चाहता लेकिन मैं एक ध्यान दिलाना चाहता हूँ, इस खाली और भरे हुए गिलास के बीच के सन्नाटे की ओर। आज़ादी के अड़सठ साल बाद भी लगभग बाइस करोड़ लोग इसी खाली गिलास की तरफ हैं। यह कहीं किसी राजनैतिक दल के वोट बैंक हैं, जो जानबूझकर इन्हें गरीब और निर्धन बनाये रखना चाहते हैं क्योंकि यदि वह सबल हो गए तो इनकी राजनीति कैसे चमकेगी। 


मित्रों, एक बात ध्यान से देखिये: विश्व का सबसे बड़ा स्लम "धारावी" मुम्बई के उपनगरीय तंत्र का एक अहम हिस्सा है। इसमें विश्व का सबसे बड़ा चमड़े का कारखाना है, यहाँ जूते, जैकेट, बेल्ट और भी न जाने क्या क्या बनाया जाता है। कांग्रेस के औद्योगीकरण में बड़े व्यापारियों को लाभ पहुंचाने के नाम पर इन छोटे और मंझोले उद्यमियों को बहुत नुकसान हुआ। पर्यावरणविद भी इको-सिस्टम का नाम लेकर इन्हें कोसते रहे लेकिन कभी किसी ने इन्हें कहीं और बसाने और इस उद्योग में एसएमई बनाने की वकालत नहीं की। मोदी का स्टार्ट-अप इण्डिया का मैं पुरज़ोर समर्थन करता हूँ क्योंकि इसके बाद विश्व में भारत की एक अच्छी क्षवि बनेगी और कई कंपनियां आएँगी। हर क्षेत्र में बहुत स्कोप है, चाहे वह कचरे के रीसायकल का हो या फिर जैविक खाद बनाने का, सोलर प्लांट का हो या फिर कुछ और। आपको हैरानी होगी यह सुनकर लेकिन गोबर के कंडे बनाकर उनका निर्यात संभव है। इस भरे हुए गिलास और आधे खाली गिलास के बीच के सन्नाटे को दूर करने के लिए ज़रूरी है कि इस वर्ग को मजबूत किया जाए। उसे आरक्षण का लपूझन्ना नहीं अवसर चाहिए। थोड़ी सी पूँजी और दिशा चाहिए। सरकारी तंत्र भी उसके लिए अनुकूल हों, पुलिस प्रशासन माफिया से उनकी रक्षा करें ताकि वह अपने पैरों पर खड़े हो सकें। इस साठ साल के कांग्रेसी राज की वोट बैंक राजनीति ने किसी भी समस्या के समाधान के बारे में न सोचकर सिर्फ वोट बैंक की राजनीति की मानसिकता ने बहुत मुसीबत कर दी है, तंत्र ही भ्रष्ट है और अब यही भ्रष्ट आचरण हमारी दिनचर्या का हिस्सा है। यकीन न आये तो खुद के गिरेबां में झाँक लीजियेगा, समझ जाइयेगा।

बहरहाल चिंता ज़रूर कीजिये लेकिन भली प्रकार से बुद्धि के तर्क को ध्यान में रखकर, लीजिये चाय पीजिये तब तक। वैसे इस समाजशास्त्र से इतर यहाँ आधी रात हो रही है और हम तारों सितारों की ओर टकटकी लगाये हुए हैं, कैमरे से किसी चमकते हुए तारे की फोटो, चन्द्रमा की फोटो खींच खींच कर खुद को ही खुश कर रहे हैं। धीमी धीमी आवाज़ में कंप्यूटर गीत बजा रहा है की वह सुबह कभी तो आएगी। 



चलिए आप एक प्याली कप और चंदा मामा की फोटो देखिये और हमें इजाजत दीजिये, कल सुबह फिर से नौ से छ की गुलामी करने जाना है। 

बुधवार, 20 जनवरी 2016

ब्रम्ह सत्यम जगत मिथ्या


एक बार नारद आकाश मार्ग से कहीं चले जा रहे थे, उन्हें रुदन करता और बहुत ही घबराया, डरा हुआ एक पक्षी दिखाई दिया। उस जीव की इस दशा पर उन्हें बड़ी दया आई सो वह उसके पास गए और उसकी इस अवस्था का कारण पुछा। उस कबूतर ने बताया कि नित्य की भाँति आज वह अपने परिवार के लिए अन्न संग्रह कर रहा था तो ठीक उसी समय काल ने उसे देखा और उसे देख कर काल ज़ोर से हंसा। उसी काल के हंसने से वह आक्रान्त था कि निश्चित ही उसका अंत अब सुनिश्चित है। उसने नारद के चरणों में गिरकर अपने लिए अभय माँगा। नारद ने दया करते हुए उसे अपनी मन्त्र शक्ति से हज़ारो कोस दूर हिमालय की कंदराओं में पहुंचा दिया। नारद अपने इस प्रयास से स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे और उसी अभिमान में वह काल से जा मिले। वह काल उसी कबूतर को अपने साथ लिए जा रहा था और कबूतर अब जीवित न था। जिस कबूतर के अभय के लिए नारद ने ऐसा प्रयास किया उसे असफल देख नारद को घनघोर निराशा हुई। नारद ने काल से पुछा कि यह कैसे हुआ तो काल बोला, हे मुनिराज, आज जब मैंने इस पक्षी को अन्न संग्रह करते हुए देखा तब मैं इसलिए हंसा क्योंकि विधाता ने इसकी मृत्यु का समय और स्थान अबसे कुछ पल बाद हज़ारो कोस दूर हिमालय की कंदराओं में लिख रखा है और यह अभी यहीं है। मैं यह सोच कर विधाता पर हंसा कि इतनी जल्दी यह अबोध पक्षी वहाँ पहुँचेगा कैसे? लेकिन आपने मेरा काम आसान कर दिया और इसे अपनी मन्त्र शक्ति से इसके प्रारब्ध तक पहुंचा दिया। विधाता ने प्रत्येक प्राणी के जीवन, मरण का समय निश्चित किया है और हर प्राणी अपने अपने कर्मानुसार उसी गति को प्राप्त होते हैं।

इसके बाद नारद अचेत हो गए, उन्हें हत्या के पाप जैसा बोध होने लगा और वह इसी पाप के प्रायश्चित के लिए नारायण के पास पहुँचे। करुणासिंधु भगवान ने नारद को संसार के चक्र का गूढ़ रहस्य बताया, "न कोई आता है, न कोई जाता है, यह संसार, उसकी हर एक गतिविधि, प्राणी, जीव, चर, अचर, सजीव, निर्जीव, सभी योनियों के सभी चक्रों और यहाँ तक कि काल को संचालित करने वाली शक्ति परमात्म ही है"। रामायण भी कहता है कि "होइहै सोई जो राम रची राखा, कोई करि तरक बढ़ावहि साखा"। मित्रों सो इस प्रेरक कथा से प्रेरणा लीजिये और अपने जीवन में नकारात्मकता को निकाल कर आगे की सुधि लेना ही ठीक है।

आज का ज्ञान यहीं तक, कल देव बाबा कोई और ज्ञान देंगे। 😊😊

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

मुंबई ... मेरी जान : भाग-2

मुंबई में मेरे संघर्ष के दिनों में कई मित्र बनें, उन्ही में से एक थे गौरव सूद। गौरव और अंजुम और हमारी प्यारी बिटिया शरण्या। न जाने कितने ही ट्रिप पर हमारा साथ रहा और न जाने कितने हज़ारों किलोमीटर हमारी बक बक झेली है गौरव और अंजुम ने। आल्टो से लेकर रिट्ज और फिर डस्टर तक हमने कई मील साथ रास्ता तय किया है। वैसे गौरव के साथ मेरी पहचान एक अजीब से वाकये के दौरान हुई थी। दर-असल उन दिनों हम दोनों ही नौकरी की तलाश में मारे मारे  घूम रहे थे और इन्ही वाक-इन के चक्कर लगाते हुए बेरोज़गारों की कतार में दो नौजवान आपस में टकरा गए। पहला राउंड हो चुका था और हम दोनों ही थके हुए थे, मुझे कहीं बैठने की जगह नहीं मिल रही थी और गौरव भाई अपनी मित्र मण्डली के साथ बैठे थे। मुझे यूँ ही अस्त-व्यस्त सा देखकर गौरव भाई ने कहा, "मेरे भाई आ जाओ" और मैं बस इसी आत्मीय आवाज़ से गौरव भाई के पास आ गया। बहरहाल वाक-इन से दोनों धक्के खा कर अपने अपने रास्ते मुंबई आ गए और दोनों का ही कहीं नहीं हुआ। मोबाइल को हम दोनों के पास ही नहीं थे सो ईमेल की अदला बदली हो गयी। दिन बीते, कई महीने बीते और फिर नौकरियां मिली, अपने अपने रास्ते दोनों की ज़िन्दगी चलती रही और इसी बीच मेल की अदला बदली होती रही। फिर हम पडोसी बने, साथ साथ एक कंपनी के काम किये, एक दशक से अधिक की दोस्ती आज भी यूँ ही है। आज बड़ी याद आ रही थी गौरव और अंजुम तुम दोनों की तो यूँ ही कुछ चित्रों को संजो पर यह पोस्ट लगा दी गई। आइये आप भी हमारे गौरव बाबा जी के दर्शन कीजिये। 







वैसे आज हमारे गौरव भाई टोक्यो में हैं और मैं अमेरिका में, चौदह घंटे का समय अंतराल है लेकिन हैं बस एक पिंग दूर। 

आज की पोस्ट इतनी ही, अगली पोस्ट में भी मुंबईनामा जारी रहेगा अभी कुछ दिन और :-) 

सोमवार, 4 जनवरी 2016

मुंबई ... मेरी जान : भाग-1

आज यूँ ही ट्रेन में आँख लग गयी और महज़ पंद्रह मिनट में बैठे बैठे सोते हुए मैं चेम्बूर पहुँच गया वह भी वर्ष 2001 की जनवरी, जब पहली बार मुंबई गया था। चेम्बूर मुझे गीत "दो दीवाने शहर में" के अमोल पालेकर सरीखी अनूभूति दे रहा था। मैं देवनार और चेम्बूर के पास आरके स्टूडीओ देखकर ऐसा महसूस कर रहा था मानो मैं राजकपूर की फ़िल्म का ही कोई पात्र बन बैठा हूँ। बेस्ट की लाल बस में जब पहली बार बैठा तो लगा अब "छोटी से बात" फ़िल्म के अमोल पालेकर साहब की तरह किसी हसीना का पीछा करूँ.... लेकिन असल में महानगर में किसी अवसर की तलाश में आया एक नवयुवक, मैं अपने आप में उलझा हुआ सा था और किसी से कुछ भी पूछने में बड़ा संकोच हो रहा था। दर-असल उन दिनों मैं रेलवे की किसी परीक्षा देने गया था, शायद असिस्टेंट स्टेशन मास्टर के लिए। और शायद किसी बैंकिंग की परीक्षा के लिए जुहू के पंजाब नेशनल बैंक शाखा में कोई चालान बनवाना था। बहरहाल बेस्ट की बस से यात्रा करना मेरे लिए बहुत रोमांचक अनुभव था। मैथिली, भोजपुरी और हिंदी भाषा में पढ़ाई करने वाले को मराठी भाषियों के साथ थोड़ी असहजता तो थी ही लेकिन हिंदी सब समझ रहे थे तो ठीक ही था। मेक की बात यह कि जिस शब्द को मैंने सबसे पहले सुना, वह था "पुढ़े चला" इसका अर्थ है "आगे बढ़ो"। लॉजिकल बुद्धि से चलते हुए मैंने सायन के किसी कालेज में रेलवे की परीक्षा दी और फिर शाम को वापस आ गया था। पहला दिन एक बड़े शहर में बहुत अजीब सा था। 

भैया ने बहुत समझाया था लेकिन जब तक आप ख़ुद नहीं झेलते तब तक बहुत सी बातें समझ में नहीं आती हैं। सो सेंट्रल, हार्बर और वेस्टर्न लाइन मुझे कुछ भी समझा नहीं था। जुहू जाना था और वह भी ट्रेन से, उसके बाद भी जुहू पश्चिम में बैंक जाना किसी बड़े प्रोजेक्ट सरीखा था।  पूछ पूछ कर मानख़ुर्द, चेम्बूर से सायन फिर दादर और फिर जुहू जाने के लिए फ़ास्ट लोकल की झंझट, जुहू की जगह अंधेरी पहुँच गए थे और फिर पूछ पूछकर वापस स्लो लोकल पकड़कर जुहू-विले पारले पहुँचे। लोकल ट्रेन को पहली बार देखना अपने आप में बहुत बड़ा अजूबा था, एक ट्रेन, प्लेटफ़ॉर्म के जनसमुदाय को लील गयी और जिस प्लैट्फ़ॉर्म पर हज़ारों लोग थे वह सभी एक पल में ट्रेन में समा गए। धक्कम धक्का, रेलम पेल, भीड़ ही भीड़, सभी अपने आप में उलझे, सब कहीं न कहीं व्यस्त। ट्रेन में कोई दरवाज़े के पास खड़ा होकर वर्ग पहेली हल कर  रहा था तो कोई भजन कीर्तन में व्यस्त था। ग़ज़ब अनुभव था यह!! बहुत ही कनफ़्यूज सा दिख रहा मैं, सभी कोई लग रहा होगा कि शहर का नया पंछी है। बहरहाल, उस समय में मोबाइल नहीं होते थे और नेविगेशन के लिए देसी फ़ॉर्म्युला इस्तेमाल में आता था सो हमने भी उसी को अपनाया और पूछ पूछ कर पहले ईस्ट गए उसके बाद फिर वेस्ट आए। उसके बाद रास्ता खोज ही रहे थे कि क़ेराकत जौनपुर के एक रिक्शे वाले भैया से मुलाक़ात हो गयी। वह पहचान गए कि रास्ता खोजते और यूँ ही भटकने वाले इस प्राणी को मंज़िल नहीं मिल रही। मैं भी बहुत जल्दी लोगों पर भरोसा करने वाला हूँ सो हमारी ख़ूब बात हुई, इन शख़्स ने मुझे ईस्ट और वेस्ट का लॉजिक समझाया(मुंबई के पश्चिम उपनगर में अगर आप प्लैट्फ़ॉर्म-१ से बाहर निकलेंगे तो वह पश्चिम होगा, केवल मानखुर्द में ही उत्तर/दक्षिण)। ज़ुहु पश्चिम में घूमते हुए, अमिताभ बच्चन से लेकर न जाने कितने स्टार्स  के घर दिखाते रिक्शे वाले भाई मुझे पंजाब नेशनल बैंक ले आए, फिर वही बोले कि जाओ, यह पर्सनल ब्रांच है सो दस मिनट से ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा। और वाक़ई दस मिनट में काम हो गया फिर वही मुझे स्टेशन छोड़ आए, रास्ते में वड़ा पाव और जूस भी पिए हम दोनों... और न जाने क्या क्या बात हुई। शायद मेरे मूली, मक्का और मक्कारी वाली बात कहने पर वह बहुत जल्दी कनेक्ट कर पाया था, उसे लगा कोई गाँव  घर का ही आदमी मिला है। मुंबई शहर में मेरे उन दिनों के अनुभव के समय मैंने नहीं सोचा था कि मैं कभी वापस मुंबई आऊँगा, लेकिन मैं वापस न सिर्फ़ मुंबई आया बल्कि इस शहर ने मुझे हर वो मौक़ा दिया जिसकी मुझे ज़रूरत थी। 

मुंबई मेरे विचार से भारत का असली मेट्रो शहर है, यहाँ कुछ भी पहनो, कहीं भी चले जाओ, आधी रात में भी बिना किसी दिक़्क़त और डर के बिंदास घूमो। मैं कई बार मुंबई आधी रात के बाद उतरा हूँ और कभी भी एयरपोर्ट हो या स्टेशन से आराम से घर पहुँचा हूँ। यह सुरक्षा की भावना मुझे कभी दिल्ली, कलकत्ता या चेन्नई में नहीं दिखी। एक ठेलेवाले से लेकर टाटा अम्बानी तक, हर कोई अपने काम में व्यस्त है। ट्रेन में भी कोई पढ़ाई कर रहा है, कोई वर्ग पहेली हल कर रहा है तो कोई अख़बार खोल कर बैठा है। मुंबई से अपरिचित मेरे मित्रों को यह बात सुनने में थोड़ी अजीब लगे लेकिन मुंबई की विविधता का अंदाज़ा किसी भी अख़बार के स्टाल को देखकर लगाया जा सकता है, हिंदी - अंग्रेज़ी - तमिल - तेलगु - मलयालम - कन्नड़ - बंगाली - गुजराती - भोजपुरी - उड़िया जो भाषा कहिए उसके समाचार पत्र दिख जाएँगे। मुंबई मुंबई थी और है, कोई भी शहर इसकी बराबरी नहीं कर सकता। आज यहाँ जब विश्व के सबसे बड़े शहरों में से एक न्यूयॉर्क को देखता हूँ तो मुंबई के प्रति मेरा लगाव और गहराता जाता है..... कंकरीट के जंगल तो यहाँ भी हैं लेकिन वैसी जीवंतता को अभी भी तलाश रहा हूँ..... देखते हैं, शायद पढ़े लिखों के शहर में कोई जाहिल मिल जाए....