सोमवार, 31 मई 2010

आज शाम गली में बच्चे खेल रहे थे....

आज शाम गली में बच्चे खेल रहे थे....
एक छोटी सी गेंद...
और बारह बच्चे...
गेंद एक एक हाथों से होती हुई...
किसी एक के हाथ में जा रूकती
फिर वह उसे उछाल देता...
फिर सारे बच्चे उसे लपकने को दौड़ते.....
कोई एक गेंद को झपट लेता
और बाकी फिर से नीचे बैठ जाते....
फिर से गेंद बारी बारी से
सभी हाथों से गुज़रती....
और बच्चे... फिर से उसे लपकने को दौड़ते....

अपनी बालकनी से बैठा बैठा....
मैं उन बच्चो को देख रहा था....
और कुछ ही पलों की यात्रा के बाद
अपने बचपन को टटोल रहा था...
गेंद उड़ रही थी....
गेंद आसमान छु रही थी...
बच्चे उसे लपकने को
चिल्ला रहे थे...
और खूब शोर मचा रहे थे....
वैसे तो शोर मन को काटता है...
मगर यह शोर शांति पंहुचा रहा था....
हाँ कुछ पलों के लिए ही सही.....
मुझे मेरा बचपन तो याद दिला रहा था....
मुझे मेरा बचपन तो याद दिला रहा था....
-देव

13 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

massom bhavnaayein...sundar

आचार्य उदय ने कहा…

मनप्रसन्न।

Bharat ने कहा…

वाह देव बाबू

पंकज मिश्रा ने कहा…

वाह। वाकई, मुझे भी बचपन याद आ गया। बधाई।

http://udbhavna.blogspot.com/

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह देव बाबु, दिल तो बच्चा हैँ जी !

Ra ने कहा…

सुन्दर लिखा है !!!..:) बच्चे मन के सच्चे ..जितने दूर उतने अच्छे :)

M VERMA ने कहा…

बचपन ऐसा ही होता है

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

श्यामल सुमन ने कहा…

सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति देव जी।

बच्चों के इस खेल में है बचपन की याद।
सुमन को बचपन फिर मिले खुदा से है फरियाद।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

राम त्यागी ने कहा…

बात तो सही है :)

मनोज कुमार ने कहा…

इस बचपने को क़ैद कर के रखिएगा।
भागने मत दीजिएगा।

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji ने कहा…

अच्छा बड़ा जल्दी याद आया कि बच्चे भी थे !!
हमेँ तो याद ही नहीं कि हम भी बच्चे थे.....
अब लगता है कि दूसरे बच्चों में खुद को खोजना पड़ेगा.
सच में जीवन की आपा-धापी में सब जैसे कहीं खो सा गया है.
मिलते ही हम भी आपको आलेख लिखके सूचित करते हैं.
हा हा हा

संजय भास्‍कर ने कहा…

कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई