शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

मेरी कविता:- मुखौटे..

मुखौटे..

तरह तरह के मुखौटे
रंग बिरंगे मुखौटे
कभी हंसते
कभी रोते
हर वर्ण
हर भेष में
पाए जाते
मुखौटे

वह ज़माना और था
जब इन्सान मुखौटे
लगाता था
मसखरी के लिए
समाज में
व्यंग्य और विनोद
के लिए
मुखौटे थोड़े ही देर
के लिए लगाता
और फिर इन्सान
लौट आता अपनी
पहचान में
लौट आता
अपने यथार्थ में

मगर अब
मुखौटे
इन्सान के चेहरे
से इस कदर
चिपक गए हैं
की अब शरीर का
हिस्सा हो गये हैं
इंसान की
पहचान हो गए हैं

अब तो आस्तीन के सांप भी
शैतानों के बाप भी
सफ़ेद मुखौटे पहनते हैं
यहां शराफ़त का लबादा ओढे
शैतान राज करते हैं
शैतान इंसान का रुप धरकर
इन्सां पे वार करते हैं
मुखौटे ही राज करते हैं
मुखौटे ही राज करते हैं

-देव
अप्रैल २४, २०१०

6 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

वह ज़माना और था
जब इन्सान मुखौटे
लगाता था
मसखरी के लिए
समाज में
व्यंग्य और विनोद
के लिए
मुखौटे थोड़े ही देर
के लिए लगाता
और फिर इन्सान
लौट आता अपनी
पहचान में
लौट आता
अपने यथार्थ में

bahut khoob kaha...waah

M VERMA ने कहा…

मुखौटे ही राज करते हैं
बहुत खूब

honesty project democracy ने कहा…

बहुत ही सार्थक और मेहनत भरी सोच की विवेचना के लिए धन्यवाद / ब्लॉग और ब्लोगर निश्चय ही इस विश्व के भविष्य के निति निर्धारक होंगे ,इसलिए इनको एकजुट कर एक सही बदलाव के लिए तैयार करने की जरूरत है /

बेनामी ने कहा…

कडवी सच्चाई है मुखोटों का जमाना है. बहुत कुछ बोलती रचना है ये

रोहित ने कहा…

aaj kal mukhote aur aadmi dono hi ek duje ke paryay ho gaye hain...
ab to fark hi karna mushkil ho gaya hai aadmi ka asli chehra kaun sa hai aur nakli kaun sa..
bahut acchi lagi aapki rachna!
#ROHIT

बेनामी ने कहा…

बेहतर...