बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

नजरिया... बहुत बड़ी बात है यह नजरिया....

नजरिया... बहुत बड़ी बात है यह नजरिया....

अगर ना सोचो तो पत्थर नहीं तो भगवान्....
ना सोचो तो पानी नहीं तो गंगा जल
सब नज़रिए की ही तो बात है....

किसी भी बात को समझने और फिर उसपर प्रतिक्रिया देने के पहले नफा नुकसान का आंकलन कर लेने की जद्दो जहद इंसान की मौलिकता को ख़त्म कर देता है... हमने हमेशा बचपन से सुन रखा है की हमेशा सोच कर बोलो, मगर कभी कभार अगर आप सोच कर वाणी और शब्दों में वैचारिक बुद्धिमानी डाल देते हैं तो आप ना सिर्फ बनावटी आचरण प्रकट करेंगे वरन वह सामने वाले के लिए अरुचिकर भी लगेगा... दरअसल मौलिक होना और शत प्रतिशत वही लगना जो आप हैं... यह अपने आप में एक बहुत आनंद दायक बात है | एक पुरानी नज़्म है.. अपने चेहरे से जो जाहिर है छुपायें कैसे... तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे |

दरअसल एक छोटी सी बात पर घर से नाराज होकर... सुकून के कुछ पलों की तलाश में मैं अपनी गाड़ी लेकर शहर से कुछ सौ मील दूर निकल आया था... एक चाय की टपरी पर चुक्कड़ (कुल्ल्हड़) में चाय की चुस्की मार रहा था | आस पास के लोग भी मेरी पहचान से अनजान थे... वह मुझे अपने ही गाँव का एक प्राणी समझ रहे थे | बस एक बूढ़े चचा आये और बोल पड़े अपने अतीत और वर्तमान के बारे में... वह कोई सन उन्नीस सौ सत्तर की बात बता रहे थे | बोले बेटा मैं उसी साल रिटायर हुआ था, सेना की जाट रेजिमेंट में एक सैनिक था | रिटायर्मेंट के बाद अपने काम की तलाश में इस गाँव में आ गया और मैंने एक स्कुल चलाना शुरू किया... शुरुआत में बच्चों ने बहुत शोर मचाया की क्या बिना मतलब की मारा मारी में पड़े हो और चुप चाप घर पे बैठ लोगे तो क्या हो जायेगा... | मगर ना मालूम कौन सी शक्ति के वश में मैंने गाँव में एक स्कुल खोला और अपने आप को व्यस्त रखने का एक बहुत अच्छा माध्यम शुरू कर लिया.. |

आज मेरे तीनो बच्चे अमेरिका और लन्दन में हैं, आज भी बोलते हैं की आओ और हमारे साथ बस जाओ... मगर अब इस उम्र में अमेरिका और लन्दन जाके क्या मिलेगा... बस इसी तरह समय काट लूँगा और फिर जैसी ऊपर वाले की मर्जी, जब बुलावा आएगा तब चले जायेंगे... | इतना बोलकर वह चले गए.... उनको जाते देख कर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने वहां बैठे आस पास के लोगों से उनके बारे में पूछा, तो मुझे जो बात पता लगी वह जानकार मैं उस अनजान शख्स का मुरीद बन गया... मेरे लिए वह देव-तुल्य हो गया | दर-असल वह वृद्ध एक यथार्थ वादी थे, जो कुछ भी मन में आये वह बोल देते थे... | इस कारण वह घर की बहुओं की आँख में खटकते थे, और जोरू के गुलाम उनकी औलादें भी अपने पिता के समर्थन के स्थान पर अपनी पत्निओं का ही समर्थन करते | कुछ दिन निभाने के बाद जब महानुभाव को पता लगा की उनकी यथार्थ-वादिता के कारण उनके परिवार में एक विपरीत माहौल का निर्माण हो रहा है, तो उन्होंने परिवार को स्वतन्त्र कर देने का सोचा और अपने आप को अपने घर से दूर इस गाँव में बसा लिया |

वैसे तो सोचने का विषय है ही परन्तु फिर भी शायद महानुभाव ने जो किया ठीक ही किया... आज कल के समाज में जब पिता और अपने परिवार के लिए बच्चों के पास समय नहीं था तो उन्होंने स्वयं के लिए कुछ करने का सोच लिया... | कहीं ना कहीं यह एक संदेश ज़रूर था... यह सन्देश था पीढ़ियों के बीच बड़े हो रहे एक वैचारिक मतभेद की बस सोचते सोचते देव बाबा भी अपनी गाड़ी पर वापस आये... देखा दूर नदी किनारे सूरज ढलने को है, सूरज की किरणे नदी के पानी को स्याह रंग में डुबो रहीं हैं.... गाँव की मिठास को अपने मन में संजोये... मैं गाड़ी भगा रहा था ... और शायद नज़रिए को सुधारने की आवश्यकता है यही सोच रहा था... |


देव
फरवरी १७, २०१०

2 टिप्‍पणियां:

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

v एक पुरानी नज़्म है.. अपने चेहरे से जो जाहिर है छुपायें कैसे... तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे |

बहुत खूब.....!!

परिवार में इस तरह का माहौल होना चाहिए की हम किसी के लिए बंदिश न बने ......!!

dipayan ने कहा…

A very thoughtful episode, you described. Hope, everyone gets the message. Thanks