रविवार, 8 नवंबर 2009

मैं भी शायद बुरा नहीं होता

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

मैं भी शायद बुरा नहीं होता
वो अगर बेवफ़ा नहीं होता

बेवफ़ा बेवफ़ा नहीं होता
ख़त्म ये फ़ासला नहीं होता

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज-कल दिन में क्या नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता 

- बशीर बद्र

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

मेरी बहुत पसंदीदा ग़ज़लों में से है ये ग़ज़ल...शुक्रिया फिर से पढ़वाने का...
नीरज