मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

रूपया, रुपया, रुपया

वायदे के मुताबिक़ आइये आज हम फॉरेन एक्सचेंज या फिर मुद्रा विनिमय दर की बात करते हैं। आखिर यह होता क्या है और इसका किसी देश की अर्थव्यवस्था से क्या लेना देना है। आज जब भारत दुनिया की सातवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और ख़रीदी क्षमता के आधार पर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तब ऐसे में रूपये की कीमत आखिर तय कैसे होती है और कौन कौन से कारक या कारण हैं जिनके कारण इसकी कीमत में उतार या चढाव होते हैं। सबसे पहले समझने का प्रयास करते हैं की मुद्रा क्या है। मुद्रा वह है जिस से दैनिक जीवन में ख़रीद और बिक्री होती है, उदाहरण के लिए अगर आपको बाज़ार से कुछ खरीदना है तो फिर आप उसकी कीमत की मुद्रा देकर चुका सकते हैं। इसमें धातु के सिक्के और काग़ज़ के नोट दोनों आते हैं। किसी भी देश की मुद्रा को उस देश की सरकारी व्यवस्था बनाती और नियंत्रित करती है। चलिए आज रुपये की खोज पड़ताल करते हैं.... रूपया, रुपया, रुपया आखिर क्या बवाल है यह रुपया :)   

रुपये या नोट की कीमत आखिर बनती कैसे है?

किसी भी अमेरिकी डॉलर के नोट पर लिखा रहता है, "This Note is legal tender for all debts, public and private" और वहीं भारतीय नोट पर लिखा रहता है, "मैं धारक को रुपये अदा करने का वचन देता हूँ"। अब इसे समझने का प्रयास करते हैं। नोट मूल रूप से एक अंगरेजी शब्द है, जिसका अर्थ है ‘लिखित दस्तावेज़’। अब हमारे नोट पर लिखा हुआ वायदा दरअसल इस बात की पुष्टि करता है कि नोट धारक को इसे अदा करने की बैंक की वचनबद्धता (लिखित वायदा) है। आरंभिक काल में वस्तुओं के लेन देन के लिए करेंसी सिस्टम तो था नहीं तो एक वस्तु के बदले दूसरी लेने या देने का रिवाज़ ही था। बाद में इसको आसान करने के लिए धातु के सिक्के बनाये गए फिर धीरे धीरे इसमें अलग अलग प्रकार की धातुओं का इस्तेमाल होने लगा।भारत में भी शुरू में निजी बैंकों द्वारा बैंकनोट जारी किये जाने के क्रम में भी रुपया कहने का अर्थ सोने, चांदी के सिक्कों से था, जैसे कि एक तोला चांदी से बना सिक्का ‘एक रुपया’ कहलाता था, एक तोला सोना से बना सिक्का एक ‘मोहर’ कहलाता था और सोने की एक ‘मोहर’ का मूल्य सोलह रुपये था, आसान शब्दों में कहा जाए तो सोने के एक सिक्के (मोहर) के बदले चांदी के सोलह सिक्कों (रुपयों) का लेन-देन हो सकता था। कुछ दिनों तक तो मामला ठीक ठाक रहा लेकिन मामला द्वितीय विश्व युद्ध के बाद गड़बड़ाने लगा। 





फिक्स्ड या फ्लोटिंग 

दुनिया में दो प्रकार के करेंसी रेट होते हैं: 
फिक्स्ड: जिसकी कीमत उस देश की सरकार तय करती है 
फ्लोटिंग: जिसकी कीमत बाज़ार तय करता है



















भारत आज़ाद के बाद से सन 1993 तक फिक्स्ड करेंसी रेट फॉलो करने वाला देश था लेकिन नरसिम्हाराव की सरकार ने इसे बाज़ार के हवाले करके एक ऐतिहासिक कदम उठाया था। उसके बाद भारत की करेंसी बाज़ार के हवाले हो गयी और भारत में निवेश सरल हो सका। मैं इस बात का कतई हिमायती नहीं हूँ लेकिन बाज़ार के हवाले करना शायद ज़रूरी हो गया था। राजीव गांधी की सरकार में भ्रष्टाचार, उसपर वी पी सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों का निष्क्रिय कार्यकाल और फिर विश्वव्यापी मंदी के बाद देश में पैसा लाने के लिए कुछ तो करना ज़रूरी था सो रुपये को बाज़ार के हवाले करके और निवेश के अनुकूल माहौल बनाकर पैसा जुटाने का प्रयास किया गया। 

रुपये की कीमत का गिरना  

आज़ादी के समय लगभग एक रूपए का एक डॉलर था और हम एक गरीब देश थे। आज़ादी के समय भारत की हालत खस्ताहाल थी लेकिन हम पर एक भी रुपये का विदेशी कर्ज नहीं था। एक रुपया एक पौंड और एक डॉलर के बराबर कीमत रखता था। हमारा रूपया सीधे तौर पर ब्रिटेन के पौंड से जुड़ा हुआ था और उसी से रेट कंट्रोल होता था। 

1951 में पहली बार विकास योजनाओं और विश्व बैंकों से पैसा जुटाने के प्रयास और अधिक फायदा उठाने के लिए रुपये का अवमूल्यन किया गया। 

1957 में एक रुपये की कीमत 100 नए पैसे रखी गयी। इसके पहले एक पैसा एक रुपये का चौसठवां हिस्सा था (1/64)। बाद में जब भारत ने दशमलव आधारित करेंसी को अपनाया तब इस नए पैसे को ही पैसा मान लिया गया। 

बहरहाल, भारत के बजट की हालत बहुत खस्ता थी और हम पूरी तरह से विदेशी कर्जे पर निर्भर थे, उसपर 1962 और 1965 के युद्धों ने भारत की कमर तोड़ दी थी। 1965 के युद्ध में भारत को किसी भी प्रकार का कोई विदेशी समर्थन नहीं मिला था उलटे पश्चिमी देशों ने पाकिस्तान का समर्थन करते हुए भारत पर तरह तरह के आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए थे। भारत को मिलने वाली विदेशी सहायता बुरी तरह से प्रभावित हुई थी। इस समय अर्थव्यवस्था को पटरी पर बनाये रखने के लिए फिर से रुपये का अवमूल्यन किया गया अब हमारा रूपया लगभग आठ रुपये प्रति डॉलर पर आ गया था। 

1971 में रुपये की कीमत को डॉलर से फिर 1975 में इसे जापानी येन और जर्मन मार्क के साथ जोड़ा गया। अब भारतीय मुद्रा की कीमत का फैसला इन तीनों मुद्राओं के ऊपर तय किया जायेगा ऐसा फैसला हुआ। 

बहरहाल हमारा विदेशी कर्ज बढ़ता गया और हम उसकी किश्त चुकाने के लिए कर्ज लेते रहे। 1985 आते आते रूपये की हालत 12 रुपये प्रति डॉलर हो गयी। 

हर देश की अर्थव्यवस्था के लिए विदेशी कर्जे की समय पर अदायगी बहुत ज़रूरी होती है, यदि कर्जे के भुगतान का संकट हो जाए और यह भुगतान प्रभावित हो जाये तब उस देश की अर्थव्यवस्था टूट जाती है। ठीक यही हाल 1991 में भारत के सामने था। देश का विदेशी मुद्रा भण्डार सिर्फ तीन हफ्ते के लिए था, कर्जे की अदायगी का कोई रास्ता नहीं था और हम दिवालियेपन की कगार पर खड़े थे। 

इस समस्या से निपटने के लिए नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह ने मुद्रा का फिर से अवमूल्यन किया और अब लगभग 18 रुपये प्रति डॉलर के हिसाब से रेट तय हुआ। अब तक भारत डॉलर, येन और मार्क के बास्केट की बड़े ट्रेडिंग पार्टनर के द्वारा आये मूल्य पर आधारित था लेकिन 1993 आते आते इसे बाज़ार के हवाले कर दिया गया। अब रुपये की कीमत बड़े मार्किट मेकर, औद्योगिक घराने, बैंक, औद्योगिक निवेशक, विदेशी निवेश और सकल घरेलु उत्पाद, मुद्रास्फीति जैसे कई फैक्टरों पर निर्भर करने लगी। बाज़ार के हवाले होने के बाद और निवेश के लिए उचित माहौल बन जाने के बाद मुद्रा का अवमूल्यन बहुत तेज़ी से हुआ और 1999 आते आते लगभग चालीस, बयालीस रुपये प्रति डॉलर तक हो गया। 

2000 के बाद वाजपेयी सरकार ने रुपये का अवमूल्यन रोकने के लिए निवेश को आधार बनाया, विदेशी निवेश में अपार वृद्धि और निवेश के लिए उचित माहौल, विदेशी घरानों को भारत में एक बहुत बड़ा बाज़ार दिखा और उसे भारत में निवेश के लिए माहौल मिला। इसका फायदा यह मिला की रूपये का गिरना बंद हुआ और रुपया मजबूत होकर स्थिर हुआ। 2004 में यूपीए-1 ने वाजपेयी की नीति का ही अनुसरण किया और 2007 में 39 रुपये प्रति डॉलर की स्थिति सुधरी जो 48 रुपये तक बिगड़ी थी। इसमें एक बात ध्यान देने योग्य है कि 1998 के पोखरण परीक्षण के बाद विश्व द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध असल में बड़े देशों पर ही भारी पड़ गए थे और वह प्रतिबन्ध हटाने को मजबूर हो गए थे । 

2008 के विश्वव्यापी आर्थिक संकट ने निवेशकों को भारत से अपना पैसा निकालकर अपने मूल देश ले जाने पर मजबूर किया, संस्थागत निवेशकों ने जबरदस्त बिकवाली की और हमारा रुपया फिर टूटना शुरू हुआ। बाज़ार अनुकूल न था और सरकारी नीतियां नाकाफी थी। ऊपर से यूपीए-2 का भ्रष्टाचार, निवेश के लिए प्रतिकूल माहौल, बैंकों की नीति का साफ़ न होना और जबरदस्त बढ़ती हुई मुद्रास्फीति ने रुपये को तोड़ दिया। 2007-2013 तक रुपये ने अपने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। 15 मई 2014 को मनमोहन सरकार ने जाते जाते रुपये को साठ रूपए प्रति डॉलर तक पहुंचा दिया। 

फ्लोटिंग करेंसी रेट के लिए कारक: 

जब पैसा बाज़ार के हवाले कर दी जाती है तब बहुत से फैक्टर आ जाते हैं। भारत मैनेज्ड फ्लोट करेंसी रेट को फॉलो करने वाला देश है। इसके अंतर्गत विश्व की अर्थव्यवस्था किसी भी जुड़े हुए देश के ट्रेड बैलेंस पर निर्भर कर सकती है। आईएमएफ के अनुसार लगभग 82 देश इस सिस्टम से जुड़े हुए हैं। 

दुनिया की सबसे शुद्ध फ्लोटिंग करेंसी कैनेडा के डॉलर की है और दुसरे नंबर पर अमेरिकी डॉलर है। 1970 तक करेंसी के रेट के लिए ब्रेटन वुड्स सिस्टम का पालन होता था लेकिन 1971 में अमेरिका ने एक डॉलर के एक्सचेंज रेट यानि की 1/35 औंस सोना = 1 डॉलर के लॉजिक को मानने से इंकार किया और इसे फिक्स्ड करने की जगह वेरिएबल किया। अब डॉलर बाज़ार के हवाले था लेकिन ठीक इसी समय स्मिथसोनियन समझौते को आधार मानकर विश्व के लगभग सभी वित्तीय लेन देन करने वाले देशों ने (मध्य पूर्व और खाड़ी देशों सहित) अपना रेट उस मुद्रा के साथ फिक्स्ड कर दिया जो बहुत ज्यादा गिरी या उछली नहीं थी। इसका सीधा फायदा अमेरिकी डॉलर को मिला और लगभग सभी वित्तीय समझौते अमेरिकी डॉलर में किये जाने लगे। 

इस फ्लोटिंग करेंसी रेट को फॉलो करने का सबसे बड़ा नुकसान विकासशील देशों को है। यह उन कारकों पर निर्भर करता है जिन पर उस देश का बहुत हद तक नियंत्रण है ही नहीं। 

- डॉलर पर निर्भरता 
- आर्थिक भंगुरता 
- अर्थव्यवस्था पर बड़े झटके 

यदि किसी भी देश को अपने देश की मुद्रा का अवमूल्यन रोकना है तो फिर उसे कई कारकों को नियंत्रण में रखना होगा। 

1. मुद्रास्फीति 
2. निवेश और विदेशी मुद्रा भंडार 
3. सकारात्मक माहौल 
4. कर्ज और ब्याज की तय समय पर अदायगी 
5. सकल घरेलु उत्पाद
6. खरीद शक्ति समानता (Purchase power parity)

याद रखिये यदि निवेश आधारित नीतियां होंगी तब रूपया बाज़ार के हवाले ही रहेगा। यह नीति अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए मनमोहन सिंह लेकर आये और उसे ठीक तरीके से चलाया अटल बिहारी वाजपेयी ने और उसे फिर से पटरी से उतार दिया मनमोहन सिंह साहब से और अब मोदी के पास उसे अपने रास्ते पर लाने के लिए गंभीर चुनौती है। अगर मैं फ्लोट करेंसी बास्केट के आधार पर अन्य मुद्राओं के अवमूल्यन की बात करूँ तो हम आज भी काफी मजबूत स्थिति में हैं। 2016 में अगर बड़े बैंकिंग समूहों की मानें तो रुपये में स्थिरता बनी रहेगी और निवेशकों के लगातार और स्थिर निवेश की स्थिति में इसमें सुधार की सम्भावना रहेगी। फिलहाल बाज़ार के समीकरण सरकार के साथ हैं लेकिन उन्हें अपनी नीतियों के पालन के लिए मजबूती से डटे रहना होगा। विपक्ष के बॉयकॉट करने जैसी स्थिति, कानून पारित कराने में सरकार की अक्षमता जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं जिनसे निवेशकों की नज़र में क्षवि कमजोर होती है और इसके भी विपरीत परिणाम होते हैं।

(एबीएन एमरो के मार्किट रिसर्च डेटा के अनुसार) 

(क्रेडिट सुइस के अनुसार) 

इन्वेस्टमेंट बैंक, मार्किट मेकर और रुपया 

भारतीय रुपया दुनिया भर के मार्केट मेकर और बड़े इन्वेस्टमेंट बैंकों के लिए प्रमुख फोरेक्स ट्रेडिंग इंस्ट्रूमेंट नहीं है, और वह आज भी डॉलर, पौंड, येन, यूरो, ऑस्ट्रेलियन डॉलर, येन और नॉर्वे क्रौन को ही अपने बास्केट में रखते हैं। विश्व में फोरेक्स आज सबसे ज्यादा ट्रेड होने के बावजूद उसमे रुपये का योगदान मुश्किल से एक प्रतिशत है और उस मामले में हम दुनिया में बीसवें पायदान पर हैं। हांगकांग डॉलर, सिंगापुरी डॉलर, टर्किश लीरा और कोरिया का वोन भी रुपये से ज्यादा ट्रेड होता है।  

दुनिया में सबसे बड़े फोरेक्स इलेक्ट्रॉनिक एक्सेक्यूशन वेन्यू में कोई भी भारतीय नहीं है। 


बहरहाल फिलहाल सरकार का समर्थन किया जाना चाहिए क्योंकि उसके इरादे एकदम साफ़ हैं और देशहित में हैं। आई एम ऍफ़ की रिपोर्ट को माने तो अगले दशक तक भारत के पास विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की क्षमता है और आतंरिक विरोधाभास में घिरे हुए देश को पटरी पर लाने की ज़िम्मेदारी हम सभी की है। इसमें ज़िम्मेदारी सभी की है, मीडिया, राजनैतिक दल देश की जनता, एनआरआई, सोशल मीडिया के क्रन्तिकारी सभी लोग इसमें सकारात्मक सहयोग दें। व्यर्थ की नकारात्मकता को हवा देकर आप अपना ही नुकसान कर बैठेंगे। 

चलिए आज के लिए इतना ही, फिर मिलेंगे किसी और मुद्दे के साथ। 

जय हो

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

बहुत कुछ सीखा आपके लेख से ...बहुत बहुत धन्यवाद!

Unknown ने कहा…

बहुत प्रशन्नता हुई ये लेख पढ़कर। ऐसा मार्ग दर्शन करते रहिए। हम भी तँ मन धन से इस मुहीम को आगे बढ़ाएंगे। जय हो