रविवार, 19 अगस्त 2012

बरसात से भीगी आज की सुबह... :-देव

रखा रानी... ज़रा जम के बरसो... कल ही तो गर्मी से त्रस्त होकर हमनें इन्द्र देवता को याद किया और देखिए आज क्या झूम कर बरसे हैं... खिडकी खोलकर पानी के छींटो के बीच किशोर दा की आवाज़ का मधुर संगीत.... कुछ पंछी भी बालकनी की रेलिंग पर खुद को पानी से बचाते और पंख फ़डफ़डाते बैठकर बारिश खत्म होने का इंतज़ार कर रहे हैं... लेकिन बरसात खूब ज़ोर से हो रही है और बादलों को देखकर जल्दी खत्म होनें जैसा नही लग रहा। नादां परिन्दों को दाना डालनें की कोशिस की लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ..  किसी नें दानों को छुआ तक नहीं और हमनें भी कोई खास प्रयास नहीं किया। बहरहाल थोडी ही देर में हमनें भी नीचें झांकना शुरु किया, उन कबूतरों को हमारी मौजूदगी का एहसास था लेकिन बरसात की तेज़ी और हमसे कोई खतरा ना देखकर उन्होनें उडकर भागनें की कोई जल्दबाज़ी नहीं की। 

नीचे सडक पर पानी भर चुका है और नालों की साफ़ सफ़ाई समय से न होनें के कारण पानी ऊपर ही जमा हो रहा है और धीरे धीरे रिस रिस कर नाले में जा रहा है, इस जल जमाव के कारण गाडी वालों को तो कोई खास दिक्कत नहीं लेकिन सडक पर पैदल चलनें वालों को दिक्कत हो रही थी.. हो भी क्यों न गाडी वाले तो खाली पूं पूं मार देते हैं बेचारा आम आदमी तो परेशान ही होता है। बरसात अपने रंग में बहती ही जा रही थी और हम और कबूतरों का झुण्ड बारिश का आनन्द ले रहे थे... कोई आधा घंटा बरसाती रंग में रंगे रहे और उसके बाद जब घरवाली ने बुलाया तो एक इस दिव्य यात्रा से बाहर आए... एक प्याली चाय मिली और मुम्बई की खबरों के बीच चाय और खारी बिस्कुट की चुस्कियों का आनन्द लिया.. थोडी देर सरकार को गरियाया और सरकारी सिस्टम को.. लेकिन चाय की प्याली खत्म होते होते वह भी "सब चलता है" में बदल चुका था.. अब फ़िर से कबूतरों को दाना खिलानें की कोशिश हुई... इस बार कामयाबी मिली और पूरा झुंड चावल के दानें खानें में मगन हो गया। रविवार का दिन था और कोई और काम नहीं था सो सोचा थोडा आनन्द की नींद ली जाए... लेकिन आज कल का अविष्कार यह मोबाईल चैन से सोनें भी तो नहीं देता भाई... बहरहाल सब काम निपटानें के बाद वापस सडक पर ध्यान गया... इस बार कुछ बच्चे बारिश में मौज मस्ती करते हुए नज़र आए... झूम झूम होती बरसात और भीगता-खेलता बचपन... आनन्द की कोई सीमा नहीं... हम भी नीचे उतर आए और सोचा क्यों न बरसात का थोडा आनन्द हम भी ले लें.... गड्ढे में भरा पानी हमारी सोच से भी ज्यादा गन्दा था और शायद मुसीबत को निमन्त्रण था... वहीं पास में खेलते बच्चे शायद उसके सबसे आसान शिकार हो सकते थे... जब तक हम कुछ कर पाते तेज़ गति से एक कार निकली और उसनें छपाक मार दिया... अब साहब क्या कहें छप्पाक मारती हुई यह कार कुछ यूं गई की मन से गाली निकली.. कम्बखत कम से कम देख तो लेता...  बच्चे अब भीगनें की जगह गन्दगी धो चुके थे... और हम सोच रहे थे किसकी गलती है...  उस कार वाले की... या बारिश में सडक पर खेलते हुए यह बच्चे की... या फ़िर सडक बनानें वाले उस कान्ट्रैकटर की जिसनें खड्डे बना के रख दिए हैं... बहरहाल हम भी ऊपर आए और शावर के नीचे खडे होकर सबको गरिया ही रहे थे... दूसरी बार नहानें का कोई मन न था लेकिन मजबूरी वश नहाना पडा... साहब क्या कहें अब तक बरसात का मजा रफ़ू हो चुका था और मन बडे गुस्से से भरा था... घरवाली नें "चलिए कोई बात नहीं" का पहाडा पढाया और एक प्याली गरमा गरम चाय हमारी तरफ़ बढा दी.... चाय की चुस्की फ़िर से चालू थी... सडक पर बच्चे फ़िर भी खेल रहे थे... गाडियां अब भी निकल रहीं थी और हम चाय की चुस्की का आनन्द ले रहे थे.. और मन ही मन सोच रहे थे कहां हम हर किसी को कोस रहे थे और इन बच्चों को कोई फ़र्क ही नहीं पडा.... आखिर इसी का नाम तो बचपन है.... जी बिल्कुल इसी का नाम तो बचपन है....  बस तो इसी तरह से गुज़री आज की सुबह... लेकिन क्या खूब गुज़री आज की सुबह....

(बहुत दिन पहले लिखी मेरी यह कविता... )


आज शाम गली में बच्चे खेल रहे थे....
एक छोटी सी गेंद...
और बारह बच्चे...
गेंद एक एक हाथों से होती हुई...
किसी एक के हाथ में जा रूकती
फिर वह उसे उछाल देता...
फिर सारे बच्चे उसे लपकने को दौड़ते.....
कोई एक गेंद को झपट लेता
और बाकी फिर से नीचे बैठ जाते....
फिर से गेंद बारी बारी से
सभी हाथों से गुज़रती....
और बच्चे... फिर से उसे लपकने को दौड़ते....

अपनी बालकनी से बैठा बैठा....
मैं उन बच्चो को देख रहा था....
और कुछ ही पलों की यात्रा के बाद
अपने बचपन को टटोल रहा था...
गेंद उड़ रही थी....
गेंद आसमान छु रही थी...
बच्चे उसे लपकने को
चिल्ला रहे थे...
और खूब शोर मचा रहे थे....
वैसे तो शोर मन को काटता है...
मगर यह शोर शांति पंहुचा रहा था....
हाँ कुछ पलों के लिए ही सही.....
मुझे मेरा बचपन तो याद दिला रहा था....
मुझे मेरा बचपन तो याद दिला रहा था....

:-देव

3 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह देव बाबू वापसी का अंदाज़ तो बेहद उम्दा निकाला ... बारिश और चाय ... जय हो !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बारिश की फुहारों में बचपन की मस्ती दिखती है।

Shekhar Suman ने कहा…

बारिश... बारिश और सिर्फ बारिश....
अक्सर बारिश अच्छी लगती है मुझे... खासकर तब जब घर में कोई न हो.. और मैं खिड़की से बारिश की बूंदों को घंटों निहारता रहूँ... कितनी अजीब बात है आसमान रो रहा होता है और हम चाय और पकौड़ों के साथ बैठकर उसका मज़ा ले रहे होते हैं.... अक्सर यही तो होता है, दूसरों के रोने पर मज़ा ही तो लेते हैं सब लोग...