मंगलवार, 25 मई 2010

डेढ तियां साढे तीन..?

अबे ई कौन सा केलकुलेशन हुआ? आज ज़ेरोक्स करानें एक दुकान पर गया था और तीन कापी ज़ेरोक्स के लिये दिया। सामनें वाला बन्दा बोला तीन कापी आगे पीछे दोनो साईड साढे तीन रुपए... हम बोले भैया पर पेज कित्ते पैसे? बोला पचत्तर पैसे... हम बोले तो भैया साढे तीन कौने हिसाब से हुआ? बोला डेढ + डेढ + डेढ = साढे तीन... बस फ़िर देव बाबा का दिमाग खराब... पांच का नोट दिया तो बन्धु नें हमें पचास पैसे की एक टाफ़ी पकडा दी। हमनें बोला की अबे साढे तीन बोल कर साढे चार काट रहे हो? बोला अरे... और फ़िर अपनें आप को करेक्ट करके बोला साढे चार रुपये... और फ़िर अपनी बत्तीसी एकदम निपोर के दिखा दी... गुटखा खाए हुए उसके सारे दांत दिखा डाले कम्बख्त नें।

वैसे डेढ और ढाई की गुणा गणित करना आसान नहीं है, हमारे मास्टर तो मार मार करके डेढ, ढाई के पहाडे याद करा डालते थे। औचक ही पूछते थे... डेठ सत्ते? उत्तर दीजिये ... नही तो फ़िर मार खानें को तैयार रहिए। अब ज़माना बदल गया है अभी आज कल के बच्चे अलग टाईप की शिक्षा ले रहे हैं, और ज्यादा स्मार्ट भी हो गये है। गिल्ली डंडा और कबड्डी खेलनें वाली पीढी अब प्ले-स्टेशन पर इन खेलों को खेल कर खुश है। पतंगे भी ससुरी टीवी में उडनें लगी हैं... सही में तरक्की कर गया है यार ज़माना। अच्छा या बुरा सो तो पता नहीं मगर हां परिवर्तन होनें ज़रुरी हैं मगर बच्चों का मैदानों से दूर हो जाना चिंता की बात ज़रुर है।

बहरहाल बात डेढ की गुणा से शुरू हुई थी तो फ़िर आपको फ़िर से वहीं लेकर चलता हूं, इससे जुडा हुआ एक और किस्सा आप लोगों को सुनाता हूं। कक्षा सातवीं की बात है, हमारे क्लास टीचर सक्सेना जी हुआ करते थे। और बात बात पर पिनक कर सारे बच्चों को सामुहिक रुप से मुर्गा बना देना, बाहर फ़ील्ड में चार चक्कर लगवा देना यह उनकी आम आदतों में शुमार था। बच्चें डर के मारे थर थर कांपते थे। डेढ पसली के देव बाबा की तो फ़िर हालत ही क्या कही जाए। वह हमें गणित पढाते थे और उनकी कक्षा में कोई चर्र चूं कोई आवाज़ नहीं आती थी। डरे सहमें से बच्चे मानो किसी जज की अदालत में हों और अपनी मौत की सजा की घोषणा की प्रतीक्षा में हो। बस एक दिन सक्सेना जी को क्लास में आनें में लेट हो गया और लगभग दस मिनट के बात लडकों को लगा की आज छुट्टी मिल गयी। बस फ़िर क्या सारे बच्चे क्लास के बाहर और फ़िर देसी अड्डा शुरु... मगर ऊपर वाले को तो कुछ और ही मंज़ूर था। सक्सेना जी आए और फ़िर उन्होनें जो डेढ और ढाई के पहाडे सुना सुना कर पीटा है सारे लोगों को,आज भी याद है देव बाबा को ।

आज कल के मां के लाडलों को कोई मास्टर इत्ता पीट देबै तो फ़िर तो भैया ना मालूम मास्टर कौन कौन से कानूनी पचडे में फ़ंसेगा । पहले मास्टर पीटते थे और बच्चे डरते थे.. आज कल मास्टर डरते हैं और बच्चे ही राज करते हैं... इसीलिए तो फ़िर डेढ तिय़ां साढे तीन करनें के बाद बत्तीसी दिखाते फ़िरते हैं। धन्य है ना?

-देव

12 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

तब कहे थे कि मन लगा के पढाई कर लो तो माने नहीं ...............तो भुगतो अब !!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

वाकई जमाना बहुत तेजी से बदलता जा रहा है....हमारे समय में तो कोई गलती करने पर घर वाले ही कान पकड कर टीचर के सामने ला खडा करते थे कि लगाईये जरा दो चार डंडा ससुरे को..बहुत शरारती हो गया है.......आजकल बच्चे तो बच्चे उनके माँ बाप भी टीचर का जलूस निकाल दें....

Udan Tashtari ने कहा…

आज बहुत दिनो बाद फिर गाल पर हाथ चला गया...तमाचा याद गया जो डेढ़ के पहाड़े के लिए पड़ा करता था.

बहुत बेहतरीन याद दिलाया.

M VERMA ने कहा…

देव जी
सुन्दर ढंग से स्मृतियों को टटोला है. हमारी भी स्मृतियाँ ताजा हो गईं.
सहज लेखन सुन्दर है बरकरार रखियेगा

Rohit Singh ने कहा…

....आज कल मास्टर डरते हैं और बच्चे ही राज करते हैं.....

हाहाहाहा लगता है लिखना कुछ था पर लिख कुछ गए....सही कर देता हूं..
आज कल मास्टर डरते हैं और बच्चे या उनके मां-बाप पीटते हैं.......


ये लाइन महानगरों मे ही नहीं अब कस्बो मे भी होने लगी है।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

हम तो खैर डेढ़ और ढ़ाई के पहाड़े वाले दिन याद ही नहीं करना चाहते हैं, क्यों जख्मों को कुरेदते हैं :(

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji ने कहा…

कभी-कभी सोचता हूँ कि ई ससुरा देव हमरे पर ही तो चोरी-चोरी नहीं न लिखता है !!
हमारा घर का नाम भी 'देव' ही है और हम भी डेढ़ पसली के ही हैं.
ही ही ही
ये बात इस बंदे को बताता कौन है !!!!!!
ये जो... अभी सो रही है... मेरी बहन ?
न...नहीं... इसे इत्ती समझ कहाँ !!ये मम्मी-पापा से कहके पिटवा सकती है, नेट पर बेइज्जती नहीं करवाएगी !!!
अब आज चैक करता हूँ तभी समझ आएगा कि कौन घर का भेदी बनके मेरी लंका ढहा रहा है.

Smart Indian ने कहा…

अरे भय्या, बन्दे के मास्साब इतने ज़ालिम नहीं थे!

kunwarji's ने कहा…

"ये लाइन महानगरों मे ही नहीं अब कस्बो मे भी होने लगी है।"

गाँव भी अछूते नहीं साहब......

बहुत बढ़िया..

कुंवर जी,

राम त्यागी ने कहा…

सही कह रहे हो, मास्साब वाले दिन तो अक्सर याद आते रहते है. आज तुमने फिर मुर्गे और गाल पर बरसे तमाचों की याद दिला दी.
पर बच्चों को और उनकी मासूमियत को डराकर नौकरी के योग्य तो सिखाया जा सकता है जैसे हम बने पर उनके वास्तविक हुनर को बाहर नहीं लाया जा सकता.
शिक्षा व्ववस्था में समाया के साथ बदलाव ठीक है पर हमारे सरकारी स्कूल इस चक्कर में न पहले वाले रहे और न परिवर्तन के अनुरूप ..यानी घर के न घाट के

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

Ha ha ha.....
Ganit!!!
Dedh dedh ja kitne hue, batao to...

Kumar Jaljala ने कहा…

ैक्या आप जानते है.
कौन सा ऐसा ब्लागर है जो इन दिनों हर ब्लाग पर जाकर बिन मांगी सलाह बांटने का काम कर रहा है।
नहीं जानते न... चलिए मैं थोड़ा क्लू देता हूं. यह ब्लागर हार्लिक्स पीकर होनस्टी तरीके से ही प्रोजक्ट बनाऊंगा बोलता है। हमें यह करना चाहिए.. हमें यह नहीं करना चाहिए.. हम समाज को आगे कैसे ले जाएं.. आप लोगों का प्रयास सार्थक है.. आपकी सोच सकारात्मक है.. क्या आपको नहीं लगता है कि आप लोग ब्लागिंग करने नहीं बल्कि प्रवचन सुनने के लिए ही इस दुनिया में आएं है. ज्यादा नहीं लिखूंगा.. नहीं तो आप लोग बोलोगे कि जलजला पानी का बुलबुला है. पिलपिला है. लाल टी शर्ट है.. काली कार है.. जलजला सामने आओ.. हम लोग शरीफ लोग है जो लोग बगैर नाम के हमसे बात करते हैं हम उनका जवाब नहीं देते. अरे जलजला तो सामने आ ही जाएगा पहले आप लोग अपने भीतर बैठे हुए जलजले से तो मुक्ति पा लो भाइयों....
बुरा मानकर पोस्ट मत लिखने लग जाना. क्या है कि आजकल हर दूसरी पोस्ट में जलजला का जिक्र जरूर रहता है. जरा सोचिए आप लोगों ने जलजला पर कितना वक्त जाया किया है.