रविवार, 18 जुलाई 2010

पिता:- एक लघु कथा...

अभय सोच सोच कर परेशान हो रहा था की उसने ऐसा क्यों किया... क्यों उसने अपने माता पिता से झगडा कर लिया | अपनी गलती का पछतावा हो रहा था मगर अब शायद बहुत देर हो चुकी थी | अम्मा और पापा इस बार बहुत दिनों के बाद केवल अभय से मिलने की लालसा में मुंबई आए हुए थे | मगर अभय अपने माता पिता को समय ही नहीं दे पाया, और जब मिला तो मामूली सी बात का बतंगड़ बना कर अपने ही पिता को दुखी कर दिया |

वैसे माता और पिता की कोई अनुपमा नहीं होती, कोई तुलना नहीं होती माता पिता तो देव तुल्य है.... इसी उधेड़ बुन में अभय की रात की नींद उड़ गई | अगले दिन चुप चाप ऑफिस से छुट्टी लेकर अपने घर आया अपने माता पिता के पास.. तो उसे देख कर उसके माता पिता की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा... | कितने दिनों के बाद अपने बेटे को पास पाकर माँ फूली ना समाई और पिता भी ख़ुशी से दोहरे हो रहे थे.... की बेटा मिलने आ गया | अभय की समझ में यह नहीं आ रहा था की जिस पिता का अभी दो दिन पहले उसने अपमान किया... वह बदले में उसे इतना प्रेम कैसे दे सकते हैं... पिता का यह स्वरूप उसकी समझ से परे था... | थक कर उसने अपने पिता से यह पूछ ही लिया... बदले में उसके पिता ने सिर्फ इतना ही कहा की बेटा बडा बन और देना सीख... चाहे किसी के भी साथ रह... मगर बदले में देना सीख | तू तो अपनी औलाद है, तेरे से कैसा क्रोध... | अभय की आँखों में पश्चाताप के आंसू थे... उन्ही आंसुओ से भारी आँखों से आँगन को देख रहा था... होली के रंग पुरे आँगन में बिखर रहे थे... होली के रंगों और इंसानी रिश्तों की एक नयी परिभाषा जानकार आज उसका अंतर्मन पवित्र हो चुका था.. | वह बदल चुका था... और होली के असली रंगों का अर्थ भी जान चुका था |

7 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बेहद उम्दा, देव बाबु।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

देव कुमार जी, मैं नहीं लिखूंगी की अच्‍छी है। केवल कहानी से छोटी होने को ही लघुकथा नहीं कहते। यह एक विधा है, इसका एक सांचा है, यदि आप लघुकथा को सांचे में रहकर नहीं लिखेंगे तो लघुकथा नहीं कहलाएगी। मैंने सुधार की दृष्टि से ही यह लिखा है यदि आप वाकई में लघुकथा लिखना चाहते हैं तो पहले अध्‍ययन करें तो अपनी बात को सार्थकता से कह सकेंगे। अपनी बात के लिए क्षमा सहित।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

संवेदन, सम्बन्धों का।

कडुवासच ने कहा…

...बेहतरीन!!!

arvind ने कहा…

bahut sundar laghukathaa. subhakaamanaaye.

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji ने कहा…

रक्त-सम्बन्ध यही होते हैं. अभी हमारे लिए इन्हें समझना शेष है. अभी तो उजबक बने घूम रहे हैं.

मनोज कुमार ने कहा…

कहानी में पारिवारिक रिश्तों की डोर मज़बूत दिखाई देती है।