शनिवार, 17 अप्रैल 2010

हमी हम हैं तो क्या हम हैं तुम्ही तुम हो क्या तुम हो...

यार किसी की ज़िन्दगी में दखल-अंदाजी किस हद तक होनी चाहिए... कम से कम इतनी तो नहीं की सामने वाले की ज़िन्दगी प्रभावित हो जाए | दर-असल भावनाओ में बह जाना और फिर सामने वाले पर भावनाओ का अति-क्रमण कर देना भी तो एक प्रकार की ज्यादती होगी | यह ज़िन्दगी बहुत छोटी है... रोने धोने के लिए ज्यादा टाइम नहीं है यहाँ | जो जैसे जी रहा है उसको जीने दो यार..... कम से कम दखल अन्दाजी मत करो | बनो तो जीवन में मिर्ची मत बनो जो हर जगह पर अपना लाल रंग दिखा जाये... बनाना ही है तो नमक बनो जो कहीं दिखे भी नहीं और जिसके बिना स्वाद भी ना आये | सही है ना.... वैसे दुनिया में कोई छोटा ना बड़ा... कोई खोटा ना खरा... सभी अपने अपने हिसाब से जीना सीख ही लेते हैं | मैं आप लोगों को एक उदा-हरण देता हूँ.... चुम्बक की बल रेखाएं कभी एक दुसरे को नहीं काटती... वैसे ही सभी लोगों की ज़िन्दगी अलग अलग रहे तो ही अच्छा है.... दो चुम्बकीय बल रेखाएं पास आये वह अच्छा है.... मगर कभी एक दुसरे को काटे ना..... वैसे ही दो व्यक्ति भले नजदीक आयें मगर रिश्ते बने रहने के लिए एक दूरी बनाये रखना भी आवश्यक है |

यदि किसी से प्रेम हो और उस पर विश्वास हो तो फिर उस विश्वास को हमेशा बनाये रखना ही अच्छा है.... क्या ज़रूरत है की उस पर आप अपनी अपेक्षाओं का पहाड़ लाद दे... और सामने वाले को इतना मजबूर कर दे की वह आपसे कन्नी काटने लगे... प्रेम में देना अधिक ज़रूरी है... लेना नहीं... यही सत्य है और इसको मान लेने में ही भलाई है | ज़रूरत है तो बस दूर रह कर भी मन से साथ रहने की.... और अपने मन में विश्वास और प्रेम को बनाये रखने की... दिल के रिश्ते बहुत ज़रूरी हैं भाई... उनके बिना तो फिर यह ज़िन्दगी यांत्रिक हो जाएगी.... सो सबको अपना समझो मगर सामने वाले की भावनाओ का भी ख्याल करो.... | वह कहते हैं ना हमी हम हैं तो क्या हम हैं तुम्ही तुम हो क्या तुम हो.. सभी विशेष हैं और ज़िन्दगी की राह के हमसफ़र छुट ना जाएँ इसके लिए उनकी भी भावनाएं समझना ज़रूरी है |

आज बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल की चार लाइने लिख रहा हूँ.... शायद आप लोगों को भी अच्छी लगें......

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता

कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता


देव
१७ अप्रैल २०१०

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