आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे
मेरे अपने मेरे होने कि निशानी मांगे
में भटकता ही रहा, दर्द के वीराने मे
वक़्त लिखता रहा चेहरे पे हर पल का हिसाब
मेरी शोहरत मेरी दीवानगी कि नज़र हुई
पी गयी मय कि बोतल मेरे गीतों कि किताब
आज लौटा हूँ तो हँसने कि अदा भूल गया
ये शहर भूला मुझे, में भी इसे भूल गया
मेरे अपने मेरे होने कि निशानी मांगे
आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे
मेरा फन फिर मुझे बाज़ार में ले आया है
ये वो जां है कि जहाँ मेह्र-ओ-वफ़ा बिकते हीं
कोख बिकती है, सर बिकते हैं, दिल बिकते हैं
इस बदलती हुई दुनिया का खुदा कोई नही
सस्ते दामों हर रोज़ खुदा बिकते हैं, बिकते हैं ..
मेरे अपने मेरे होने कि निशानी मांगे
आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे
2 टिप्पणियां:
कुछ शीतल सी ताजगी का अहसास करा गई आपकी रचना।
"आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे
मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगे.."
वस्तुतः ये मर्मस्पर्शी गाना 'डैडी'(1989) फ़िल्म (महेश भट्ट),में अनुपम खेर जी पर बहुत ही खूबसूरती से फिल्मांकित किया गया है।
इसके सुन्दर अल्फ़ाज़ सूरज सनीम जी के हैं (कम से कम रचनाकार का नाम तो अवश्य ही दिया जाना चाहिये)।
कर्णप्रिय धुन राजेश रौशन जी ने बनायीं थी और इसे अपनी मखमली अंदाज़ में गाया है तलत अजीज़ ने।
अशुद्धियों -यथा-'की' की जगह 'कि'; 'सूरत' की जगह 'सुरत' आदि से बचा जा सकता था। प्रस्तुति का प्रयास बेशक सराहनीय है।
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