आज यूँ ही ट्रेन में आँख लग गयी और महज़ पंद्रह मिनट में बैठे बैठे सोते हुए मैं चेम्बूर पहुँच गया वह भी वर्ष 2001 की जनवरी, जब पहली बार मुंबई गया था। चेम्बूर मुझे गीत "दो दीवाने शहर में" के अमोल पालेकर सरीखी अनूभूति दे रहा था। मैं देवनार और चेम्बूर के पास आरके स्टूडीओ देखकर ऐसा महसूस कर रहा था मानो मैं राजकपूर की फ़िल्म का ही कोई पात्र बन बैठा हूँ। बेस्ट की लाल बस में जब पहली बार बैठा तो लगा अब "छोटी से बात" फ़िल्म के अमोल पालेकर साहब की तरह किसी हसीना का पीछा करूँ.... लेकिन असल में महानगर में किसी अवसर की तलाश में आया एक नवयुवक, मैं अपने आप में उलझा हुआ सा था और किसी से कुछ भी पूछने में बड़ा संकोच हो रहा था। दर-असल उन दिनों मैं रेलवे की किसी परीक्षा देने गया था, शायद असिस्टेंट स्टेशन मास्टर के लिए। और शायद किसी बैंकिंग की परीक्षा के लिए जुहू के पंजाब नेशनल बैंक शाखा में कोई चालान बनवाना था। बहरहाल बेस्ट की बस से यात्रा करना मेरे लिए बहुत रोमांचक अनुभव था। मैथिली, भोजपुरी और हिंदी भाषा में पढ़ाई करने वाले को मराठी भाषियों के साथ थोड़ी असहजता तो थी ही लेकिन हिंदी सब समझ रहे थे तो ठीक ही था। मेक की बात यह कि जिस शब्द को मैंने सबसे पहले सुना, वह था "पुढ़े चला" इसका अर्थ है "आगे बढ़ो"। लॉजिकल बुद्धि से चलते हुए मैंने सायन के किसी कालेज में रेलवे की परीक्षा दी और फिर शाम को वापस आ गया था। पहला दिन एक बड़े शहर में बहुत अजीब सा था।
भैया ने बहुत समझाया था लेकिन जब तक आप ख़ुद नहीं झेलते तब तक बहुत सी बातें समझ में नहीं आती हैं। सो सेंट्रल, हार्बर और वेस्टर्न लाइन मुझे कुछ भी समझा नहीं था। जुहू जाना था और वह भी ट्रेन से, उसके बाद भी जुहू पश्चिम में बैंक जाना किसी बड़े प्रोजेक्ट सरीखा था। पूछ पूछ कर मानख़ुर्द, चेम्बूर से सायन फिर दादर और फिर जुहू जाने के लिए फ़ास्ट लोकल की झंझट, जुहू की जगह अंधेरी पहुँच गए थे और फिर पूछ पूछकर वापस स्लो लोकल पकड़कर जुहू-विले पारले पहुँचे। लोकल ट्रेन को पहली बार देखना अपने आप में बहुत बड़ा अजूबा था, एक ट्रेन, प्लेटफ़ॉर्म के जनसमुदाय को लील गयी और जिस प्लैट्फ़ॉर्म पर हज़ारों लोग थे वह सभी एक पल में ट्रेन में समा गए। धक्कम धक्का, रेलम पेल, भीड़ ही भीड़, सभी अपने आप में उलझे, सब कहीं न कहीं व्यस्त। ट्रेन में कोई दरवाज़े के पास खड़ा होकर वर्ग पहेली हल कर रहा था तो कोई भजन कीर्तन में व्यस्त था। ग़ज़ब अनुभव था यह!! बहुत ही कनफ़्यूज सा दिख रहा मैं, सभी कोई लग रहा होगा कि शहर का नया पंछी है। बहरहाल, उस समय में मोबाइल नहीं होते थे और नेविगेशन के लिए देसी फ़ॉर्म्युला इस्तेमाल में आता था सो हमने भी उसी को अपनाया और पूछ पूछ कर पहले ईस्ट गए उसके बाद फिर वेस्ट आए। उसके बाद रास्ता खोज ही रहे थे कि क़ेराकत जौनपुर के एक रिक्शे वाले भैया से मुलाक़ात हो गयी। वह पहचान गए कि रास्ता खोजते और यूँ ही भटकने वाले इस प्राणी को मंज़िल नहीं मिल रही। मैं भी बहुत जल्दी लोगों पर भरोसा करने वाला हूँ सो हमारी ख़ूब बात हुई, इन शख़्स ने मुझे ईस्ट और वेस्ट का लॉजिक समझाया(मुंबई के पश्चिम उपनगर में अगर आप प्लैट्फ़ॉर्म-१ से बाहर निकलेंगे तो वह पश्चिम होगा, केवल मानखुर्द में ही उत्तर/दक्षिण)। ज़ुहु पश्चिम में घूमते हुए, अमिताभ बच्चन से लेकर न जाने कितने स्टार्स के घर दिखाते रिक्शे वाले भाई मुझे पंजाब नेशनल बैंक ले आए, फिर वही बोले कि जाओ, यह पर्सनल ब्रांच है सो दस मिनट से ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा। और वाक़ई दस मिनट में काम हो गया फिर वही मुझे स्टेशन छोड़ आए, रास्ते में वड़ा पाव और जूस भी पिए हम दोनों... और न जाने क्या क्या बात हुई। शायद मेरे मूली, मक्का और मक्कारी वाली बात कहने पर वह बहुत जल्दी कनेक्ट कर पाया था, उसे लगा कोई गाँव घर का ही आदमी मिला है। मुंबई शहर में मेरे उन दिनों के अनुभव के समय मैंने नहीं सोचा था कि मैं कभी वापस मुंबई आऊँगा, लेकिन मैं वापस न सिर्फ़ मुंबई आया बल्कि इस शहर ने मुझे हर वो मौक़ा दिया जिसकी मुझे ज़रूरत थी।
मुंबई मेरे विचार से भारत का असली मेट्रो शहर है, यहाँ कुछ भी पहनो, कहीं भी चले जाओ, आधी रात में भी बिना किसी दिक़्क़त और डर के बिंदास घूमो। मैं कई बार मुंबई आधी रात के बाद उतरा हूँ और कभी भी एयरपोर्ट हो या स्टेशन से आराम से घर पहुँचा हूँ। यह सुरक्षा की भावना मुझे कभी दिल्ली, कलकत्ता या चेन्नई में नहीं दिखी। एक ठेलेवाले से लेकर टाटा अम्बानी तक, हर कोई अपने काम में व्यस्त है। ट्रेन में भी कोई पढ़ाई कर रहा है, कोई वर्ग पहेली हल कर रहा है तो कोई अख़बार खोल कर बैठा है। मुंबई से अपरिचित मेरे मित्रों को यह बात सुनने में थोड़ी अजीब लगे लेकिन मुंबई की विविधता का अंदाज़ा किसी भी अख़बार के स्टाल को देखकर लगाया जा सकता है, हिंदी - अंग्रेज़ी - तमिल - तेलगु - मलयालम - कन्नड़ - बंगाली - गुजराती - भोजपुरी - उड़िया जो भाषा कहिए उसके समाचार पत्र दिख जाएँगे। मुंबई मुंबई थी और है, कोई भी शहर इसकी बराबरी नहीं कर सकता। आज यहाँ जब विश्व के सबसे बड़े शहरों में से एक न्यूयॉर्क को देखता हूँ तो मुंबई के प्रति मेरा लगाव और गहराता जाता है..... कंकरीट के जंगल तो यहाँ भी हैं लेकिन वैसी जीवंतता को अभी भी तलाश रहा हूँ..... देखते हैं, शायद पढ़े लिखों के शहर में कोई जाहिल मिल जाए....
2 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया देव बबा ...मुम्बईनामा जारी रहे |हम पढ रहे हैं
बढ़िया भैया.. लिखिए ये सीरिज...हम पढेंगे!
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