रविवार, 8 नवंबर 2009

कहीं भीड़ में गुम हो जाना चाहता हूँ

कभी कभार हमारे सामने कुछ नकारात्मक परिस्थितियां आ जाती हैं.. जो हमें भी नकारात्मक सोचने पर मजबूर कर देती हैं... उस समय हमारे किये हुए हर काम या तो गलत हो जाते हैं या फिर लोगों की नज़र में गलत होते हैं | दुनिया और समाज का तर्क चाहे कुछ भी हो हम तो वही करेंगे जो सच हो और सच लगे.. मैंने अपने जीवन में हमेशा सच्चाई का पहलु रखने और सच्चाई के रास्ते पर चलने में विश्वास किया है | आज जब मैं मेरे सामाजिक रिश्तों को बचाने और उनको निभाने में लगा हूँ, तो मेरे साथ आने वाले लोगों की बहुत कमी हो गयी है | कभी कभार हमारे अपने ही हमसे कुछ इस प्रकार के प्रश्न या तर्क रख देते हैं, जिनके आगे कोई उत्तर नहीं दिए जा सकते हैं...| 

आज अनायास ही बन आई मेरी कविता ... मेरे अंतर-द्वंद को बयां करती हुई... 

मैं अँधेरे में खो जाना चाहता हूँ 
कहीं भीड़ में गुम हो जाना चाहता हूँ 

फिर कोई उदास सी शाम
समंदर सूर्य को अपने आगोश में लेता हुआ
शाम की लालिमा में 
अपने आप को भूलकर 
कही निकल जाना चाहता हूँ... 
मैं फिर से भीड़ में गुम हो जाना चाहता हूँ

गले तक कुछ भर आता है 
मेरे मन को बहुत सालता है  
हर अजनबी में 
अपना सा कोई तलाशता है 
वैसे ही किसी अजनबी की तलाश में 
कही निकल जाना चाहता हूँ 
मैं फिर से भीड़ में गुम हो जाना चाहता हूँ

-देव 
८ नवम्बर २००९ 

कोई टिप्पणी नहीं: