मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

अकेला पन और इन्सानियत...



आज ऑफिस से वापस आते समय इस्टर्न एक्सप्रेस हायवे पर तेज़ी से चल रही बस की खिड़की से बाहर झांकते हुए कहीं खो सा गया था... पीछे छुट रही लाइटे, गाड़ियाँ और तेज़ी से चल रही बस भले ही आगे ले के जा रही हो.. मगर मैं पीछे चला गया... अपने अतीत में और अपने बचपन में..| वर्तमान और भविष्य के बीच में चल रही जंग या कहूँ महाभारत में मैं अपने आप में कहीं खो गया... | एक अमरुद का पेड़, उसपे लटके बन्दर, ढेरो मधु-मख्खिओं, बर्रों के छत्ते और कुछ बच्चे... बच्चे क्या शैतान मण्डली कहिये भाई..| बस उसी मण्डली का हिस्सा थे हम भी.. कैसे मोहल्ले के रिश्ते और बिना मतलब के संबंधों में उलझे रहते थे हम लोग... | यह फलां चाचा हैं यह फलां मामा हैं... यह फूफा जी ये अंकल जी.... और सभी रिश्तों को बड़े प्रेम और आदर से निभाते भी थे.. | कोई चौराहे पर किसी का पता पूछे तो घर तक पहुचाने वाले भी मिल जाते... डाकिया केवल नाम देख कर चिठ्ठी घर तक दे जाता... | त्योहारों में क्या चहल पहल होती... बरेली के मॉडल टाउन का बड़ा गुरुद्वारा... जिसमे होने वाली चहल पहल के क्या कहने...| हर त्यौहार पर गुरुद्वारा जगमग करता, मुफ्त में लंगर खाने को मिलती और लस्सी की तो बात ही क्या होती | मैं और हमारे भाई दोनों मारा मारी कर लेते लास्सिओं के लिए... | लोहड़ी और होली में तो जो रौनक होती उसकी क्या कहूँ... बस मजा ही मजा... |

काहे बड़े हो गए यार... बिना मतलब की मारा मारी में उलझ गए... | निदा फाजली साहब की एक लाइन याद आ रही है... "एक वह दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया एक वह दिन जब पेड़ की शाखें बोझ हमारा सहती थी" कितना सच है ना... कैसे बिना मतलब के रिश्तों का सम्मान करते थे.. और एक आज जब सब कुछ होते हुए भी अपना कोई नहीं... कैसे एक एक करके सभी दूर होते चले गए.. | इन्सान दो तरीके के रिश्ते बनाता है... एक जो उसे विरासत में मिलते हैं और एक जो वह कमाता है... | विरासत में मिले रिश्ते तो हर किसी के साथ चलते ही हैं.. मगर खुद के कमाए हुए रिश्ते निभा पाना और उसमे सामंजस्य रख पाना एक बड़ी चुनौती है.. | कैसे स्कुल और कालेज में बने मेरे मित्रों में से सभी एक एक करके दूर होते चले गए... | सभी अपनी अपनी दुनिया में मस्त हो गए.. मज़बूरी कहें या इन्सान की फितरत.. मगर फ़िलहाल साथ तो छुट ही गया.. | जिन लोगों से दोस्ती ऑफिस के काम की वजह से हुई वह भी अपना अपना स्वार्थ सिद्ध होते ही पीछे छुटते गए.. | कुछ खास लोग जिनके साथ संयोग बना वही साथ चलते रहे, और आज भी साथ हैं | उनमे से भी कुछ सिर्फ शायद काम की वजह से या समय की मार से दूर होते गए.. | शायद उनकी भी कोई गलती नहीं है, समय ही कुछ ऐसा है.. पुराने दोस्त कुछ दिनों के बाद स्मृति पटल से ओझल हो जाते हैं.. | या यूँ कहूँ तो मैंने ही बहुत अधिक उम्मीद कर ली थी.. जबकि मैं खुद भी तो जानता हूँ की दिल के रिश्ते ... की शायद कोई अहमियत नहीं... | सभी एक एक करके अपनी दुनिया में खो जाते हैं... | इसी उधेड़बुन में बाहर आने की कोशिस कर रहे थे की अचानक बस झटके के साथ एक सिग्नल पर रुकी | और हम चेतना में वापस लौट आये... देखा बस में अजनबी भरे थे.. कोई अपने कान में हेड-फोन डाले कोई रेडियो... सभी अपने आप में व्यस्त थे... | मैं खुद भी तो इसी दुनिया का एक हिस्सा था... चुप चाप सा अपने आप में खोया हुआ .. यही सिखाया है हमें इस नयी बाज़ार वादी, तथाकथित तरक्की से आगे बढ़ रही... विकासशील से विकसित हो रही हमारी अर्थ-व्यवस्था ने |

चलो भैया मेरा तो स्टॉप आ गया और मैं घर की यात्रा पे चल पड़ा... मगर समस्या अभी भी वहीँ थी... हम अकेले चले, अकेले रह गए... इस बाजार ने हमें अकेला बना दिया... | और फिर भी मनुष्य के सामाजिक होने का दम भरते हैं... |

-देव
२ दिसंबर २००९

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

कितना सच है ना... कैसे बिना मतलब के रिश्तों का सम्मान करते थे.. और एक आज जब सब कुछ होते हुए भी अपना कोई नहीं... कैसे एक एक करके सभी दूर होते चले गए.. | इन्सान दो तरीके के रिश्ते बनाता है... एक जो उसे विरासत में मिलते हैं और एक जो वह कमाता है...